।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण सप्तमी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
भक्तशिरोमणि श्रीहनुमान्‌जीकी दास्य-रति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
         सभी रतियोंकी दो अवस्थाएँ मानी गयी हैं—संयोग (सम्भोग) और वियोग (विप्रलम्भ) । संयोग-रतिमें पत्नी भोजनादिके द्वारा पतिकी सेवा करती है और वियोग-रतिमें (पतिके दूर होनेसे) वह पतिका स्मरण-चिन्तन करती है । वियोग-रतिमें प्रेमास्पदकी निरन्तर मानसिक सेवा होती है । अतः संयोग-रतिकी अपेक्षा वियोग-रतिको श्रेष्ठ माना गया है । चैतन्य महाप्रभुने भी इस वियोग-रतिका विशेष आदर किया है । इसमें भी ‘परकीया माधुर्य-रति’ की वियोगावस्था सबसे ऊँची है, जिसमें प्रेमी और प्रेमास्पदमें नित्ययोग रहता है । प्रेम-रसकी वृद्धिके लिये इस नित्ययोगमें चार अवस्थाएँ होती हैं‒
           १-नित्ययोगमें योग
           २-नित्ययोगमें वियोग
           ३- वियोगमें नित्ययोग
           ४-वियोगमें वियोग

       प्रेमी और प्रेमास्पदका परस्पर मिलन होना ‘नित्ययोगमें योग’ है । प्रेमास्पदसे मिलन होनेपर भी प्रेमीमें यह भाव आ जाता है कि प्रेमास्पद कहीं चले गये हैं‒यह ‘नित्ययोगमें वियोग’ है । प्रेमास्पद सामने नहीं हैं, पर मनसे उन्हींका गाढ़ चिन्तन हो रहा है और वे मनसे प्रत्यक्ष मिलते हुए दिख रहे हैं‒यह ‘वियोगमें नित्ययोग’ है । प्रेमास्पद थोड़े समयके लिये सामने नहीं आये, पर मनमें ऐसा भाव है कि उनसे मिले बिना युग बीत गया‒यह ‘वियोगमें वियोग’ है । वास्तवमें इन चारों अवस्थाओंमें प्रेमास्पदके साथ नित्ययोग ज्यों-का-त्यों बना रहता है, वियोग कभी होता ही नहीं, हो सकता ही नहीं और होनेकी सम्भावना भी नहीं । प्रेमका आदान-प्रदान करनेके लिये ही प्रेमी और प्रेमास्पदमें संयोग-वियोगकी लीला हुआ करती है ।

     हनुमान्‌जीमें संयोग-रति और वियोग-रति‒दोनों ही विलक्षणरूपसे विद्यमान हैं । संयोगकालमें वे भगवान्‌की सेवामें ही रत रहते हैं और वियोगकालमें भगवान्‌के स्मरण-चिन्तनमें डूबे रहते हैं । संयोग-रतिमें प्रेमी खुद भी सुख लेता है; जैसे पतिको सुख देनेके साथ-साथ पत्नी खुद भी सुखका अनुभव करती है । परन्तु हनुमान्‌जीकी संयोग-रतिमें किंचिन्मात्र भी अपना सुख नहीं है । केवल भगवान्‌के सुखमें ही उनका सुख है‒‘तत्सुखे सुखित्वम्’ । वे तो भगवान्‌को सुख पहुँचाने, उनकी सेवा करनेके लिये सदा आतुर रहते हैं, छटपटाते रहते हैं‒
राम काज करिबे को आतुर । (हनुमानचालीसा)
राम काजू कीन्हें बिनु मोही कहाँ बिश्राम ॥ (मानस ५/१)

      एक बार सुबह हनुमान्‌जीको भूख लग गयी तो वे माता सीताजीके पास गये और बोले कि माँ ! मेरेको भूख लगी है, खानेके लिये कुछ दो । सीताजीने कहा कि बेटा ! मैंने अभीतक स्नान नहीं किया है । तुम ठहरो, मैं अभी स्नान करके भोजन देती हूँ । सीताजीने स्नान करके श्रृंगार किया । उनकी माँगमें सिन्दूर देखकर सहज सरल हनुमान्‌जीने पूछा कि माँ ! आपने यह सिन्दूर क्यों लगाया है ? सीताजीने कहा कि बेटा ! इसको लगानेसे तुम्हारे स्वामीकी आयु बढ़ती है । ऐसा सुनकर हनुमान्‌को विचार आया कि अगर सिन्दूरकी एक रेखा खींचनेसे रामजीकी आयु बढ़ती है, तो फिर पूरे शरीरमें सिन्दूर लगानेसे उनकी आयु कितनी बढ़ जायगी ! सीताजी रसोईमें गयीं तो हनुमान्‌जी श्रृंगार कक्षमें चले गये और उन्होंने सिन्दूरकी डिबियाको नीचे पटक दिया । सब सिन्दूर नीचे बिखर गया और हनुमान्‌जी वह सिन्दूर अपने पूरे शरीरपर लगा लिया ! अब मेरे प्रभुकी आयु खूब बढ़ जायगी‒ऐसा सोचकर हनुमान्‌जी बड़े हर्षित हो गये और भूख-प्यासको भूलकर सीधे रामजीके दरबारमें पहुँच गये ! उनको इस वेशमें देखकर सभी हँसने लगे । रामजीने पूछा कि हनुमान्‌ ! आज तुमने अपने शरीरपर सिन्दूरका लेप कैसे कर लिया ? हनुमान्‌जी बोले कि प्रभो ! माँके थोड़ा-सा सिन्दूर लगानेसे आपकी आयु बढ़ती है‒ऐसा जानकर मैंने पूरे शरीरपर ही सिन्दूर लगाना शुरू कर दिया है, जिससे आपकी आयु खूब खूब बढ़ जाय ! रामजीने कहा कि बहुत अच्छा ! अब आगेसे जो भक्त तुम्हारेको तेल और सिन्दूर चढ़ायेगा, उसपर मैं बहुत प्रसन्न होऊँगा !

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे