।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल द्वादशी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
सत्‌-असत्‌का विवेक


(गत ब्लॉगसे आगेका)
(१४)
       साधक भूत और भविष्यकी जिन वस्तुओं, व्यक्तियों और क्रियाओंको महत्त्व देता है, उनका चिन्तन बिना किये और बिना चाहे स्वतः होता रहता है । उस स्वतः होनेवाले चिन्तनको मिटानेके लिये साधक परमात्माका चिन्तन करता है । परन्तु यह सिद्धान्त है कि होनेवाले चिन्तनको किये गये चिन्तनसे नहीं मिटाया जा सकता । चिन्तन करनेसे करनेके नये संस्कार पड़ते हैं, जिससे वह नष्ट नहीं होता, प्रत्युत और पुष्ट होता है । स्वतः होनेवाला चिन्तन स्वतः होनेवाले चिन्तनसे अथवा चुप होनेसे ही मिट सकता है । तात्पर्य है कि सत्‌-तत्त्वका अनुभव होनेपर, निष्काम होनेपर, बोध होनेपर, प्रेम होनेपर संसारका स्वतः होनेवाला चिन्तन मिट जाता है । चुप होनेका तात्पर्य है कि साधक स्वतः होनेवाले चिन्तनकी उपेक्षा कर दे, उससे उदासीन हो जाय अर्थात्‌ उसको न ठीक समझे, न बेठीक समझे और न अपनेमें समझे तथा अपनी तरफसे कोई नया चिन्तन भी न करे । वह न चिन्तन करनेसे मतलब रखे, न चिन्तन नहीं करनेसे मतलब रखे । वह न तो किये जानेवालेका कर्ता बने और न होनेवालेका भोक्ता बने । ऐसा करनेसे साधक धीरे-धीरे अचिन्त्य हो जायगा । परन्तु अचिन्त्य होनेका, सुख लेनेका भी आग्रह नहीं रखना है । ऐसा होनेपर साधक चिन्तन करने और चिन्तन होने‒दोनोंसे रहित हो जायगा‒‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३/१८); क्योंकि करनेमें कर्मेन्द्रियोंका और होनेमें अन्तःकरणका सम्बन्ध होनेसे करना और होना‒दोनों ही अनित्य हैं । करने और होनेसे रहित होनेपर ‘है’ (सत्‌-तत्त्व) में अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जायगा ।
(१५)
       असत्‌का भाव विद्यमान नहीं है अर्थात्‌ असत्‌का भाव निरन्तर अभावमें बदल रहा है । परन्तु ‘असत्‌का भाव विद्यमान नहीं है’‒इस बातका ज्ञान अभावमें नहीं बदलता । इस ज्ञानमें हमारी स्थिति स्वतःसिद्ध है । देह तो निरन्तर अभावमें बदल रहा है; अतः देह नहीं है, प्रत्युत देही (स्वरूप) ही है । देहीकी सत्ता देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, घटना, परिस्थिति आदिसे सर्वथा अतीत है ।

       असत्‌का भाव निरन्तर अभावमें जा रहा है; अतः असत्‌ नहीं है, प्रत्युत सत्‌ ही है । असत्‌की केवल मान्यता है । असत्‌की यह मान्यता ही सत्‌की स्वीकृति नहीं होने देती । गलत मान्यता सही मान्यता करनेसे मिट जाती है । वास्तवमें न सही मान्यता है, न गलत मान्यता है, केवल सत्तामात्र है ।

       जैसे हाथ, पैर, नासिका आदि शरीरके अंग हैं, ऐसे असत्‌ सत्‌का अंग भी नहीं है । जो बहनेवाला और विकारी होता है, वह अंग नहीं होता*; जैसे‒कफ, मूत्र आदि बहनेवाले और फोड़ा आदि विकारी होनेसे शरीरके अंग नहीं होते । ऐसे ही असत्‌ बहनेवाला और विकारी होनेके कारण सत्‌का अंग नहीं है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे
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 *अद्रवं मूर्तिमत् स्वाङ्गं प्राणिस्थमविकारजम् ।
    अतत्स्थं तत्र  दृष्टं  च       तेन चेत्तत्तथायुतम् ॥