।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
श्रीनृसिंहचतुर्दशी
सत्‌-असत्‌का विवेक

(गत ब्लॉगसे आगेका)
(१६)
       भूतकाल और भविष्यकालकी घटना जितनी दूर दीखती है, उतनी ही दूर वर्तमान भी है । जैसे भूत और भविष्यसे हमारा सम्बन्ध नहीं है, तो फिर भूत भविष्य और वर्तमानमें क्या फर्क हुआ ? ये तीनों कालके अन्तर्गत हैं, जबकि हमारा स्वरूप कालसे अतीत है । कालका तो खण्ड होता है, पर स्वरूप (सत्ता) अखण्ड है । शरीरको अपना स्वरूप माननेसे ही भूत, भविष्य और वर्तमानमें फर्क दीखता है । वास्तवमें भूत, भविष्य और वर्तमान विद्यमान है ही नहीं‒‘नासतो विद्यते भावः’ ।
(१७)
        संसारमें भाव और अभाव‒दोनों दीखते हुए भी ‘अभाव’ मुख्य रहता है । परमात्मामें भाव और अभाव‒दोनों दीखते हुए भी ‘भाव’ मुख्य रहता है । संसारमें ‘अभाव’ के अन्तर्गत भाव-अभाव हैं और परमात्मामें ‘भाव’ के अन्तर्गत भाव-अभाव हैं । दूसरे शब्दोंमें, संसारमें ‘नित्यवियोग’ के अन्तर्गत संयोग-वियोग हैं और परमात्मामें ‘नित्ययोग’ के अन्तर्गत योग-वियोग (मिलन -विरह) है । अतः संसारमें अभाव ही रहा और परमात्मामें भाव ही रहा ।
(१८)
        असत्‌का भाव नहीं है और सत्‌का अभाव नहीं है; अतः सत्‌ स्वतः विद्यमान है । जो स्वतः विद्यमान है, वही परमात्मा हैं । जो पहले नहीं था, पीछे नहीं रहेगा और अभी नहींमें जा रहा है, उसे सत्ता देना, महत्ता देना और उससे सम्बन्ध जोड़ना ही खास बाधा है । अतः उसे सत्ता न दे, महत्ता न दे और उसीसे सम्बन्ध न जोड़े अर्थात्‌ उसे अपना न माने । जिसका कभी अभाव नहीं होता, उसको ही सत्ता दे, उसको ही महत्ता दे और उसीको अपना माने । जो नहीं है, उसका महत्त्व कैसा ? महत्त्व तो उसीका है, जो है और वही अपना है ।

      जो नहीं है, उससे तटस्थ, बेपरवाह, निर्लेप, निरपेक्ष, उदासीन, विमुख होना है; उससे चिपकाना नहीं है । वास्तवमें हम असत्‌ (वस्तु, व्यक्ति और क्रिया) से निर्लेप हैं; क्योंकि हम उसके भाव-अभावको, उत्पत्ति-विनाशको, संयोग-वियोगको और आदि-अन्तको जानते हैं । इस प्रकार अपनेको निर्लेप अनुभव करके चुप हो जायँ अर्थात्‌ चुप होकर स्थित रहें तो स्वतःसिद्ध सत्ता (सत्‌-तत्त्व) का स्पष्ट अनुभव हो जायगा । वास्तवमें सत्‌-तत्त्व स्वतःसिद्ध है, केवल असत्‌से विमुख होना है । अगर हम असत्‌को अस्वीकार कर दें तो वह रहेगा ही नहीं; क्योंकि वह है ही नहीं, उसमें रहनेकी ताकत ही नहीं है‒‘नासतो विद्यते भावः’ ।

        श्रीमद्भागवतमें आया है‒‘अतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्तः’ (१०/१४/२८) ‘सन्तलोग संसारका त्याग करते हुए परमात्मतत्त्वकी खोज करते हैं ।’ खोजनेसे वह चीज मिलती है, जो पहले ही मौजूद हो । उसको खोजनेका उपाय है‒जो मौजूद नहीं है, उसको छोड़ते जाना । छोड़नेका तात्पर्य है‒उसकी सत्ता और महत्ता न मानना तथा उससे अपना सम्बन्ध न मानना, उसको अस्वीकार करना ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे