।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख पूर्णिमा, वि.सं.–२०७०, शनिवार
श्रीबुद्ध-जयन्ती, पूर्णिमा, वैशाख-स्नान समाप्त
बन्धन कैसे छूटे ?

(गत ब्लॉगसे आगेका)
अब आप बालक हो क्या ? तो बालकपनसे मुक्ति हो गयी न ? मुक्ति तो आपसे-आप हो रही है; क्योंकि मुक्ति है । बन्धन बेचारा है ही नहीं । बन्धनको तो आपने पकड़ा हुआ है । आप रखोगे तो रहेगा, आप छोड़ोगे तो छूट जायगा । आप बन्धन नहीं छोड़ोगे तो वह नहीं छूटेगा । बन्धनको छोड़नेका सुगम उपाय यह है कि जो अपने दीखते हैं, उनकी सेवा कर दो और उनसे सेवा मत चाहो । दो बातें मैंने बतायी थीं कि उनकी माँग न्याययुक्त, धर्मयुक्त है और आपकी उसको पूरा करनेकी शक्ति, सामर्थ्य है, आपके पास वस्तु है, तो उनकी माँग पूरी कर दो । अपनी न्याययुक्त इच्छा भी मत रखो; जैसे‒बेटा हमारी सेवा करे‒यह न्याययुक्त होनेपर भी इसकी इच्छाको मत रखो । इस तरह खुद तो सेवा चाहो नहीं और दूसरोंकी सेवा करते रहो, तो मुक्ति हो जायगी । सेवा चाहते रहोगे तो मुक्ति नहीं होगी । और दूसरा सेवा करेगा भी नहीं ।

       सेवा चाहनेसे दूसरा सेवा नहीं करेगा और सेवा नहीं चाहोगे तो वह सेवा करेगा; आपकी सेवामें घाटा नहीं पड़ेगा । आपके पास रुपये हैं, रोटी है, कपड़ा है, तो आप किस साधुको देना चाहते हैं ? जो लेना नहीं चाहता । जो लेना नहीं चाहता, उसको दोगे या जो लेना चाहता है, उसको दोगे ? जो चोरी करता है, डाका डालता है, छीनता है, उसको आप देना चाहते हो क्या ? आप उसीको देना चाहते हैं, जो लेना नहीं चाहता । संसारसे कुछ नहीं चाहोगे तो संसार ज्यादा सुख देगा । आपको सुख कम नहीं पड़ेगा, घाटा नहीं लगेगा । जो कुछ नहीं चाहता, उसको सब देना चाहते हैं, तो फिर उसके सुखमें घाटा कैसे पड़ेगा । घाटा तो सुख चाहनेसे पड़ता है । मान-बड़ाई भी उसको देते हैं जो इसको नहीं चाहता । फिर चाहना करके दरिद्री क्यों बनें ?

            श्रोता‒अनादिकालसे पड़े हुए ममताके संस्कार मिटें कैसे ?

     स्वामीजी‒अनादिकालका अँधेरा दियासलाई जलाते ही भाग जाता है । किसी गुफामें लाखों वर्षोंसे अँधेरा हो और वहाँ जाकर प्रकाश करें तो वह यह नहीं कहेगा कि मैं यहाँ इतने वर्षोंसे हूँ, इसलिये मैं जल्दी नहीं जाऊँगा । जब प्रकाश हुआ तो वह मिट गया । ऐसे ही जो भूल है, गलती है, वह मिटनेवाली होती है ।

        ममताको मिटानेका उपाय है‒देनेकी इच्छा रखो । लेनेकी आशा रखो ही मत कि हमें कुछ मिले । वस्तु अपने पासमें है और दूसरा चाहता है, तो बिना किसी शर्तके उसको दे दो । देते रहोगे तो स्वभाव देनेका पड़ जायगा । लेनेका स्वाभाव होनेसे नयी-नयी ममता पैदा होती है । इसलिये भीतरसे ही लेनेकी इच्छा छोड़ दो ।

       संसारकी सेवा-ही-सेवा करनी है, लेना कुछ नहीं है‒यह ‘कर्मयोग’ हो गया । संसारके साथ हमारा सम्बन्ध है ही नहीं‒यह ‘ज्ञानयोग’ हो गया । भगवान्‌ ही मेरे हैं और कोई मेरा नहीं है‒यह ‘भक्तियोग’ हो गया । मेरा सम्बन्ध संसारके साथ है, संसार मेरा है और मेरे लिये है‒यह ‘जन्म-मरणयोग’ या ‘बन्धनयोग’ हो गया ! बार-बार जन्मो और मरो ! अब जिसमें आपको फायदा लगे, उसको कर लो । परमात्माके साथ तो आपका सम्बन्ध स्वतः है और संसारके साथ सम्बन्ध आपका माना हुआ है । संसारसे कितना ही सम्बन्ध जोड़ लो, वह टिकता ही नहीं । जो टिके नहीं, उसको पहले ही छोड़ दो ।

    (शेष आगेकेब्लॉगमें)
‒ ‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे