।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
वरूथिनी एकादशी-व्रत (वैष्णव)
सत्संगकी महिमा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
        मनमें ईर्ष्या, राग, द्वेष आदि दोष भरे हुए हैं । बहुत-से भाई-बहन इस बातको जानते ही नहीं है और जो जानते हैं वे विशेष खयाल नहीं करते । कई खयाल करके छोड़ना भी चाहते हैं, लेकिन इसमें सुख लेते रहते हैं । इस कारण राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि छूटते नहीं, क्योंकि असत्‌का संग रहता है ।

         सत्‌का संग (सत्संग) मिल जाय तो आदमी निहाल हो जाय । जहाँ सत्‌का संग हुआ, वह निहाल हुआ । कारण क्या है ? परमात्मा सत्‌ हैं । बीचमें जितना-जितना असत्‌का सम्बन्ध मान रखा है, वही बाधा है ।

         जैसे कल्पवृक्षके नीचे जानेसे सब काम सिद्ध होते हैं, वैसे ही सत्संग करनेसे सब काम सिद्ध होते हैं । अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष‒चारों पुरुषार्थ सिद्ध होते हैं । तो क्या सत्संगसे धन मिल जाता है ? कहते हैं कि सत्संगसे बड़ा विलक्षण धन मिलता है । रुपया मिलनेसे तृष्णा जागृत होती है और सत्संग करनेसे तृष्णा मिट जाती है । रुपयोंकी जरूरत ही नहीं रहती ।
गंगा पापं शशी तापं   दैन्यं कल्पतरुर्हरेत् ।
पापं तापं तथा दैन्यं सद्यः साधुसमागमः ॥

         गंगाजीमें स्नान करनेसे पाप दूर हो जाते हैं; पूर्णिमाके दिन चन्द्रमा पूरा उदय होता है, उस दिन तपत (गरमी) शान्त हो जाती है; कल्पवृक्षके नीचे बैठनेसे दरिद्रता दूर हो जाती है । पर सत्संगसे तीनों बातें हो जाती हैं‒पाप नष्ट होते हैं, भीतरी ताप मिट जाता है और संसारकी दरिद्रता दूर हो जाती है ।
चाह गई चिन्ता मिटी,       मनुआ बेपरवाह ।
जिनको कछू न चाहिए, सो साहन पतिशाह ॥

सत्संगसे हृदयकी चाहना भी मिट जाती है । यह बात एकदम सच्ची है, सत्संग करनेवाले भाई-बहन तो इस बातको जानते हैं । बिलकुल ठीक बात है, सत्संगसे हृदयकी जलन दूर हो जाती है ।

        मनुष्य चाहता है कि ऐसे हो जाय, वैसे हो जाय तो ऐसी बात आती है कि‒
मना मनोरथ छोड़ दे    तेरा किया न होय ।
पानी में घी निपजे तो सूखी खाय न कोय ॥
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यद्भावि न तद्भावि   भावि चेन्न तदन्यथा ।
इति चिन्ताविषघ्नोऽयमगदः किं न पीयते ॥

         जो नहीं होना है, वह नहीं होगा और जो होनेवाला है वह टल नहीं सकता, होकर रहेगा फिर ऐसा क्यों आग्रह कि यह होना चाहिये, यह नहीं होना चाहिये । बस हाँ-में-हाँ मिला दें । सत्संग भी एक कला है । सत्संगमें कला मिलती है, दुःखोंसे पार होनेकी । जैसे समुद्रमें डूबनेवालेको तैरनेकी कला हाथ लग जाय, ऐसे सत्संगमें युक्ति मिल जाय तो निहाल हो जाय ।

सत्संगमें उत्तम विचार मिलते हैं । ज्ञानमार्गमें तो यहाँतक बताया है‒
धन किस लिए है चाहता, तू आप मालामाल है ।
सिक्के सभी जिससे बनें,   तू वह महा टकसाल है ॥

         उस धनके आगे तू इस धनको क्यों चाहता है ? धन-ही-धन है । परमात्मा-ही-परमात्मा है; लबालब भरा हुआ है । उस धनसे धन्य हो जाय । परमात्माका, सत्‌का दर्शन‒यह सत्संग करा देता है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे