।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
सत्संगकी महिमा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक सज्जन मिले । वे कहते थे कि तीर्थोंका माहात्मय बहुत है । गंगाजी अच्छी हैं, यमुनाजी अच्छी हैं, प्रयागराज बड़ा अच्छा है‒ऐसा लोग कहते तो हैं, परन्तु किराया तो देते नहीं । किराया दें तो वहाँ जायें । सत्संगमें बढ़िया-बढ़िया बात सुनते हैं और परमात्माके धाम जानेके किराया भी मिलता है । सत्संगमें ज्ञान मिलता है, प्रेम मिलता है, भगवान्‌की भक्ति मिलती है । भगवान्‌ शबरीसे कहते हैं‒‘प्रथम भगति संतन्ह कर संगा ।’ दण्डक वन था, उसमें वृक्ष आदि सब सूखे हुए थे । उसमें शबरी रहती थी । यहाँ शबरीको सत्संग मिल गया, यह भगवान्‌की कृपा है । मतंग ऋषि थे, बड़े वृद्ध सन्त, कृपाकी मूर्ति । उन्होंने शबरीको आश्वासन दिया था कि बेटा, तू चिन्ता मत कर, यहाँ रह जा । ऋषि-मुनियोंने इसका बड़ा विरोध किया, पर सन्तकी कृपा बड़ी विचित्र होती है ।

         धनी आदमी राजी हो जाय तो धन दे दे, अपनी कुछ चीज दे दे, परन्तु सन्त कृपा करें तो भगवान्‌को दे दें । उनके पास भगवान्‌रूपी धन होता है । वे सामान्य धनके धनी नहीं होते हैं, असली धनके धनी होते है, मालामाल होते हैं और वह माल ऐसा विलक्षण है कि ‘दानेन वर्धते नित्यम्’, ज्यों-ज्यों देते हैं, त्यों-त्यों बढ़ता है । ऐसा अपूर्व धन है । अतः खुला खर्च करते हैं । खुला भंडार पड़ा हुआ है, अपार, असीम, अनन्त है; जिसक कोई अन्त ही नहीं है । भगवान्‌का ऐसा अनन्त अपार खजाना है । फिर भी मनुष्य मुफ्तमें दुःख पा रहे हैं । इसलिये सज्जनो, बड़े आश्चर्यकी बात है !
पानीमें   मीन   पियासी,        मोहि    देखत   आवै   हाँसी ।
जल बिच मीन, मीन बिच जल है, निश दिन रहत पियासी ॥

भगवान्‌में सब संसार है और सबके भीतर भगवान्‌ हैं । उन भगवान्‌से विमुख होते हैं तो सन्त-महात्मा जीवको परमात्माके सम्मुख कर देते हैं । ‘सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।’ अरे भाई ! परमात्मा तो सम्मुख है ही, हमारा प्यारा माता-पिता, भाई-बन्धु, कुटुम्बी, सम्बन्धी‒वह सब तरहसे अपना है । वे प्रभु हमारे हैं । सन्त ऐसी बात बता दें और हम वह बात सुनकर पकड़ लें तो बड़ा भारी लाभ होता है । स्वयं हम पकड़ें और किसी सन्त-महात्माके कहनेसे हृदयसे पकड़ें तो उसमें बड़ा अन्तर होता है ।

सन्त-महात्मा जो कहते हैं, उनके वचनोंका आदर करो । जमानत भी ली जाती है तो इज्जतदार आदमीकी । हर एककी जमानत नहीं होती है । ऐसे ही भगवान्‌के दरबारमें सन्त-महात्माओंकी और भक्तोंकी बड़ी इज्जत है, तभी तो गोस्वामीजीने कह दिया‒
सत्य बचन आधीनता   पर तिय मातु समान ।
इतने पै हरि ना मिले तो तुलसीदास जमान ॥
तुलसीदासजीकी जमानत है । सन्त लोग जमानत दे देते हैं और वह भगवान्‌के यहाँ चलती है । सन्तोंके यहाँ परमात्माका बड़ा खजाना रहता है । मुफ्तमें धन मिलता है, मुफ्तमें कमाया हुआ, तैयार किया हुआ, सत्संगसे यह सब मिल सकता है ।

प्रश्न‒कुछ लोगोंको सत्संग करना सुहाता ही नहीं । इसका क्या कारण है ?
उत्तर‒पापीका यह स्वाभाव है कि उसे सत्संग सुहाता नहीं ।
पापवंत कर      सहज सुभाऊ ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ ॥
                            (मानस ५/४३/२)

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे