।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
दुःखका कारण-संकल्प

(गत ब्लॉगसे आगेका)
चाहे संसारके संकल्पमें अपना संकल्प मिला दो, चाहे प्रभुके संकल्पमें अपना संकल्प मिला दो, चाहे प्रारब्धमें अपना संकल्प मिला दो । जैसा होना है, वैसा हो जायगा; कूदाकूदी क्यों करो ! अपने सब संकल्प छोड़ दो तो जीवन महान्‌ पवित्र हो जायगा । जो अपने-आप होता है, उसमें अपवित्रता नहीं आती, वह ठीक ही होता है । संसारके संकल्पसे होगा तो ठीक होगा, भगवान्‌के संकल्पसे होगा तो ठीक होगा, प्रारब्धसे होगा तो ठीक होगा । बेठीक होगा ही नहीं । बेठीक तो हम कर लेते हैं । अपना संकल्प कर लेते हैं तो बेठीक हो जाता है ।

एक स्फुरणा होती है और एक संकल्प होता है । कोई बात याद आती है‒यह ‘स्फुरणा’ है और ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये‒यह ‘संकल्प’ है । संसारकी स्फुरणा होती रहती है और मिटती रहती है । आप जिस स्फुरणाको पकड़ लेते हो, वह संकल्प हो जाता है । संकल्पमें मनुष्य बँध जाता है‒‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५/१२) । संकल्पसे कामना पैदा हो जाती है‒ ‘संकल्पप्रभवान्कामान्’ (गीता ६/२४), जो सम्पूर्ण पापों और दुःखोंकी जड़ है । जो सब संकल्पोंका त्याग कर देता है, वह योगारूढ़ हो जाता है । कितनी सीधी-सरल बात है ! इसमें बेठीक होगा ही नहीं ।

आप कितना ही ठीक समझो या बेठीक समझो; जो होना है, वह होगा ही । जो अनुकूल या प्रतिकूल होनेवाला है, वह तो होगा ही । सर्दी आनी है तो आयेगी ही, गर्मी आनी है तो आयेगी ही । आप सुख-दुःखी हो जाओ तो आपकी मरजी ! वह आपके सुख-दुःखके अधीन नहीं है । इस तरह अपने-अपने प्रारब्धका फल आयेगा ही । आप सुखी हो जाओ तो आयेगा, दुःखी हो जाओ तो आयेगा । एकदम सच्ची बात है ! जो नहीं होना है, वह नहीं होगा । जो होना है, वह हो जायगा । जो होगा, वह हम अपने-आप देख लेंगे । वह कोई छिपा थोड़े ही रहेगा ! अतः चतुर वही है, जो अपना कोई संकल्प नहीं रखता । सीधी-सादी बात है, अपना संकल्प न रखे तो निहाल हो जाय आदमी ! क्यों संकल्प रखे और क्यों दुःख पाये !

अपने अनुकूलमें राजी होना और प्रतिकूलमें नाराज होना‒ये दोनों ही व्यथा हैं । भगवान्‌ कहते हैं कि ‘इन्द्रियोंके जो विषय हैं, वे अनुकूलता और प्रतिकूलताके द्वारा सुख-दुःख देनेवाले हैं । वे आने-जानेवाले और अनित्य हैं । उनको तुम सह लो । सुख-दुःखमें सम रहनेवाले जिस धीर मनुष्यको वे व्यथा नहीं पहुँचाते, हलचल पैदा नहीं करते, वह मुक्तिका पात्र हो जाता है, उसका कल्याण हो जाता है (गीता २/१४-१५) । गुणोंका जो संग है, वृत्तियोंके साथ जो आसक्ति है, बस, यही ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण है‒‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१)

संकल्प मिट जाता है । कभी पूरा होकर मिट जाता है, कभी न पूरा होकर मिट जाता है । पूरा होना है तो पूरा होकर मिट जायगा, पूरा नहीं होना है तो ऐसे ही मिट जायगा । यह तो मिटनेवाली चीज है‒‘आगमापायि-नोऽनित्याः’ । इसको तो सह लो, बस‒‘तांस्तितिक्षस्व’ (गीता २/१४)

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे