।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
रम्भातृतीया
नित्यप्राप्तकी प्राप्ति


        साधक परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति, तत्त्वज्ञान, मुक्ति आदि चाहता है तो उससे एक मूल भूल यह होती है कि यह संसारके सम्बन्धको, जन्म-मरणको तो स्वाभाविक मान लेता है और परमात्मप्राप्तिको अस्वाभाविक (कृतिसाध्य) मान लेता है । उसके भीतर ये बातें जँची हुई रहती हैं कि जन्म-मरण तो सदासे चले आ रहे हैं और मुक्ति हमारे करनेसे होगी; संसारकी प्राप्ति तो पहलेसे है, पर परमात्माकी प्राप्ति नया काम है; संसार तो नजदीक है, पर परमात्मा दूर हैं; संसार तो प्राप्त ही है, पर परमात्मा प्राप्त होते हैं कि नहीं होते‒इसका पता नहीं, संसार तो है पर परमात्मा हैं कि नहीं, पता नहीं; संसार तो हमारे सामने है, पर परमात्मा सामने नहीं दीखते; आदि-आदि । परन्तु वास्तवमें संसारकी प्राप्ति अस्वाभाविक है और परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति स्वाभाविक है । दूसरे शब्दोंमें, संसारका सम्बन्ध कृत्रिम (बनावटी) है और परमात्माका सम्बन्ध वास्तविक है । बनावटी बात टिक नहीं सकती और वास्तविक बात मिट नहीं सकती ।

       यह सबके अनुभवकी बात है कि बालकपना चला गया, जवानी चली गयी, रोग चला गया, नीरोगता चली गयी, निर्धनता चली गयी, धनवत्ता चली गयी, पर हम चले गये क्या ? ऐसे ही सब संसार बदला गया, पर परमात्मा बदल गये क्या ? तात्पर्य है कि शरीर तथा संसार एक होनेके कारण ही संसार शरीरको प्राप्त दीखता है । परन्तु शरीरमें अहंता-ममता करनेसे अर्थात्‌ उसको मैं-मेरा माननेसे शरीर हमें प्राप्त दीखता है । वास्तवमें शरीर-संसार कभी किसीको प्राप्त हुए ही नहीं, हो सकते ही नहीं । अप्राप्तको प्राप्त माननेके कारण ही नित्यप्राप्त अप्राप्त दीख रहे हैं ।

      हमारा स्वरूप नित्य ज्यों-का-त्यों रहनेवाला है । अगर यह नित्य ज्यों-का-त्यों न रहे तो स्वर्ग कौन भोगेगा ? नरकोंमें कौन जायेगा ? जन्म-मरणमें कौन जायेगा ? मुक्त कौन होगा ? परमात्मा भी नित्य ज्यों-के-त्यों रहनेवाले हैं । हमने संसारको सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़ रखा है । अगर इस बनावटी सम्बन्धका त्याग कर दें तो परमात्माकी प्राप्ति और संसारकी अप्राप्ति स्वतःसिद्ध है । भूल यही होती है कि हम संसारकी सत्ताको नित्य मान लेते हैं और मुक्तिकी सत्ताको अनित्य मान लेते हैं । इसलिये हमारी ऐसी धारणा रहती है कि संसारके साथ हमारा सम्बन्ध स्वतः है और इस सम्बन्धको हम छोड़ेंगे तो मुक्ति हो जायगी अथवा संसारका सम्बन्ध छूटना बड़ा मुश्किल है, मोक्षकी प्राप्ति बड़ी कठिन है, परमात्माको प्राप्त करनेमें समय भी बहुत लगेगा और परिश्रम भी होगा, आदि ।

        वास्तवमें संसारका सम्बन्ध कभी टिकता नहीं, कभी टिका नहीं, कभी टिकेगा नहीं, टिक सकता ही नहीं । ऐसे ही परमात्माका सम्बन्ध कभी मिटता नहीं, कभी मिटा नहीं, कभी मिटेगा नहीं, मिट सकता ही नहीं । संसारसे संयोग और परमात्मासे वियोग केवल हमारा माना हुआ है, वास्तवमें है नहीं । इसलिये जो साधनमें लगे हुए हैं, उनके मनमें कभी संसारकी आसक्ति आ जाय, सत्ता आ जाय तो समझना चाहिये कि भीतर कूड़ा-कचरा पड़ा हुआ है, वह निकल रहा है । मनुष्य दरवाजेसे आता हुआ भी दीखता है और जाते हुए भी दीखता है । अतः भीतरका कूड़ा-कचरा जाते हुए दीख रहा है । उसको मिटानेकी चेष्टा करेंगे तो वह उलटे दृढ़ होगा । किसी भी विपरीत बातको मिटानेकी चेष्टा करेंगे तो मिटानेकी चेष्टा दो नम्बरकी होगी, पर उसके जमाने (दृढ़ करने) की चेष्टा एक नम्बरकी होगी । कारण कि हम उसीको मिटानेकी चेष्टा करते हैं, जिसकी हम सत्ता स्वीकार करते हैं ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे