।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
नित्यप्राप्तकी प्राप्ति

(गत ब्लॉगसे आगेका)
जिसकी सत्ता ही नहीं है, उसको क्या मिटायें ? इसलिये उसको मिटानेकी जरूरत नहीं है । उसकी उपेक्षा कर दें तो वह स्वतः मिट जायगी; क्योंकि वह निरन्तर मिट ही रही है । तात्पर्य है कि अज्ञान अपने-आप मिट रहा है, बन्धन अपने-आप छूट रहा है, साधक उसको मिटानेका उद्योग नहीं करे, प्रत्युत उसकी उपेक्षा कर दे, उसकी बेरपरवाह कर दे, उससे उदासीन हो जाय । जैसे एक छोटी-सी दियासलाईसे प्रकट हुई अग्निमें इतनी ताकत है कि वह घासके ढेरको जला देती है, ऐसे ही असत्‌की उपेक्षामें इतनी ताकत है कि वह असत्‌को मिटाकर सत्‌का साक्षात्कार करा देगी । गीतामें भगवान्‌ने कहा है‒
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥
                                                      (२/४०)
        ‘इस (समतारूपी) धर्मका थोड़ा-सा भी अनुष्ठान (जन्म-मरणरूप) महान्‌ भयसे रक्षा कर लेता है ।’

         ‒इसका कारण यह है कि निष्कामभाव थोड़ा होते हुए भी सत्य है और भय महान्‌ होते हुए भी असत्य है । जैसे मनभर रूई हो तो उसको जलानेके लिये मनभर अग्निकी जरूरत नहीं है । रूई एक मन हो या सौ मन, उसको जलानेके लिये एक दियासलाई पर्याप्त है । एक दियासलाई लगाते ही वह रूई खुद दियासलाई अर्थात्‌ अग्नि बन जायगी । रूई खुद दियासलाईकी मदद करेगी । अग्नि रूईके साथ नहीं होगी, प्रत्युत रूई खुद ज्वलनशील होनेके कारण अग्निके साथ हो जायगी । इसी तरह असंगता आग है और संसार रूई है । संसारसे असंग होते ही संसार अपने-आप नष्ट हो जायगा; क्योंकि मूलमें संसारकी सत्ता न होनेसे उससे कभी संग हुआ ही नहीं ।

         थोड़े-से-थोड़ा त्याग भी सत्‌ है और महान्‌-से-महान्‌ क्रिया भी असत्‌ है । क्रियाका तो अन्त होता है, पर त्याग अनन्त होता है । इसलिये यज्ञ, दान, तप आदि क्रियाएँ तो फल देकर नष्ट हो जाती है*, पर त्याग कभी नष्ट नहीं होता‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२/१२) एक अहम्‌के त्यागसे अनन्त सृष्टिका त्याग हो जाता है; क्योंकि अहम्‌ने ही सम्पूर्ण जगत्‌को धारण कर रखा है ।

         जैसे, कितनी ही घास हो, क्या अग्निके सामने टिक सकती है ? कितना ही अँधेरा हो, क्या प्रकाशके सामने टिक सकता है ? अँधेरे और प्रकाशमें लड़ाई हो जाय तो क्या अँधेरा जीत जायगा ? ऐसे ही अज्ञान और ज्ञानकी लड़ाई हो जाय तो क्या अज्ञान जीत जायगा ? महान्‌-से-महान्‌ भय क्या अभयके सामने टिक सकता है ? पहलेके कितने ही संस्कार पड़े हुए हों, क्या सत्संगसे वे जीत जायँगे ? समता थोड़ी भी हो तो भी पूरी है और भय महान्‌ हो तो भी अधूरा है । स्वल्प भी महान्‌ है; क्योंकि वह सच्चा है और महान्‌ भी स्वल्प (सत्ताहीन) है; क्योंकि वह कच्चा है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे
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 *वेदेषु यज्ञेषु तपःसु     चैव       दानेषु   यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
    अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥
                                                                            (गीता ८/२८)
           ‘योगी इसको (शुक्ल और कृष्णमार्गके रहस्यको) जानकर वेदोंमें, यज्ञोंमें, तपोंमें तथा दानमें जो-जो पुण्यफल कहे गये हैं, उन सभी पुण्यफलोंका अतिक्रमण कर जाता है और आदिस्थान परमात्माको प्राप्त हो जाता है ।’