।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
नित्यप्राप्तकी प्राप्ति

(गत ब्लॉगसे आगेका)
       प्रश्न‒समता, निष्कामभावको ‘स्वल्प’ (थोड़ा) कहनेका क्या तात्पर्य है ?

       उत्तर‒निष्कामभाव तो महान्‌ है, पर हमारी समझमें, हमारे अनुभवमें थोड़ा आनेसे उसको स्वल्प कह दिया है । वास्तवमें समझ थोड़ी हुई, समता थोड़ी नहीं हुई । उधर हमारा खयाल कम गया है, दृष्टि कम गयी है तो हमारी दृष्टिमें कमी है, तत्वमें कमी नहीं है । इसी तरह हमने असत्‌को ज्यादा आदर दे दिया तो असत्‌ महान्‌ नहीं हुआ, प्रत्युत हमारा आदर महान्‌ हुआ । इसलिये अगर हम सत्‌का अधिक आदर करें तो सत्‌ महान्‌ हो जायगा अर्थात्‌ उसकी महत्ताका अनुभव हो जायगा, और असत्‌का आदर न करें तो असत्‌ स्वल्प हो जायगा । वास्तवमें असत्‌ महान्‌ हो या स्वल्प, उसकी सत्ता ही नहीं है‒‘नासतो विद्यते भावः’ और सत्‌ महान्‌ हो या स्वल्प, उसकी सत्ता नित्य-निरन्तर है‒‘नाभावो विद्यते सतः’ । इसलिये उपनिषद्‌ने परमात्मतत्त्वको अणुसे भी अणु और महान्‌से भी महान्‌ कहा है‒‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ (कठ १/२/२०; श्वेताश्वतर ३/२०)

        जिसकी सत्ता ही नहीं है, उस असत्‌का आदर करना, उसको महत्त्व देना बहुत बड़ी भूल है । कभी साधकके मनमें उसकी सत्ता आ जाय तो उसकी उपेक्षा कर देनी चाहिये; क्योंकि जो कभी है और कभी नहीं है, उसकी सत्ता कभी नहीं है । जो किसी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें है और किसी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें नहीं है, वह वास्तवमें किसी भी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें नहीं है अर्थात्‌ उसका स्वतःसिद्ध नित्य अभाव है । परन्तु असत्‌को सत्य मान लिया और सम्पूर्ण देश-कालादिमें नित्य-निरन्तर विद्यमान परमात्माको उद्योगसाध्य मान लिया‒यह भूल है । जैसे, हम कहते हैं कि सूर्य बादलसे ढक गया, तो सूर्य पृथ्वीमण्डलसे भी बड़ा है, वह छोटे-से बादलसे कैसे ढक जायगा ? अतः वास्तवमें सूर्य नहीं ढका जाता, प्रत्युत हमारी आँख ढक जाती है । ऐसे ही परमात्मतत्त्व नहीं ढका जाता, प्रत्युत हमारी बुद्धि ढक जाती है । बुद्धिमें असत्‌की सत्ता बैठी हुई है, इसलिये परमात्मा दीखते नहीं । तात्पर्य है कि असत्‌की सत्तारूपसे जो धारणा है, यही परमात्मप्राप्तिमें बाधक है ।

       अगर हम सच्चे हृदयसे साधनमें लगे हुए हैं, सत्संग कर रहे हैं, तो असत्‌की निवृत्ति करनी नहीं पड़ेगी, प्रत्युत उसकी निवृत्ति स्वतः हो जायगी । जैसे, छोटा बच्चा माँकी गोदमें प्रतिदिन वैसा-का-वैसा ही दीखता है; परन्तु एक महीनेके बाद देखें तो उसमें फर्क दीखेगा, एक वर्षके बाद देखें तो अधिक फर्क दीखेगा । ऐसे ही सत्संग करते हुए हम वैसे-के-वैसे ही दीखते हैं, पर वास्तवमें वैसे नहीं रहते । पहलेवाली दशाको याद करें और अभीकी दशा देखें, दोनोंका मिलान करें, तब पता लगेगा । जो व्यक्ति सत्संग नहीं करते हैं, उनसे मिलें, तब पता लगेगा । हम तो सत्संगमें लग गये, पर हमारे जो मित्र सत्संगमें नहीं लगे, उनसे मिलें, तब पता लगेगा । फिर भी तत्काल सिद्धि न होनेमें मूल कारण हमारी यह मान्यता है कि बन्धनमें तो हम हैं, मुक्ति हमें करनी है ! व्याख्यान देनेवालोंसे, कथा करनेवालोंसे और पुस्तकोंसे भी यही बात मिलेगी कि अज्ञान सदासे है, हम सदासे जन्म-मरणमें पड़े हुए हैं, इसको मिटाना है और तत्त्वज्ञानको, मुक्तिको, परमात्माको प्राप्त करना है ! परन्तु यह तत्त्वकी बात नहीं है । तत्त्वकी बात तो यह है कि जो नित्यनिवृत्त है, उसीकी निवृत्ति करनी है और जो नित्यप्राप्त है, उसीकी प्राप्ति करनी है । जो नित्यनिवृत्त है, नित्य अप्राप्त है, उसको हमने सत्ता और महत्ता दे दी, इसीलिये नित्यप्राप्तकी प्राप्तिमें समय लग रहा है

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे