।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
नित्यप्राप्तकी प्राप्ति

(गत ब्लॉगसे आगेका)
         गीता कहती है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (२/१६) ‘जो असत्‌ है, उसका भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है अर्थात्‌ उसका अभाव ही है और जो सत्‌ है, उसका अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात्‌ उसका भाव ही है ।’ जो ‘नहीं’ है, वह असत्‌ है और जो ‘है’, वह सत्‌ है । ‘नहीं’ में ‘है’-बुद्धि और ‘हैं’ में ‘नहीं’-बुद्धि‒यह विपरीत धारणा ही परमात्मप्राप्तिमें बाधक हो रही है । हमारे देखनेमें, सुननेमें, समझनेमें जो भी संसार आ रहा है, वह सब-का-सब एक क्षण भी टिकता नहीं, प्रतिक्षण बह रहा है; परन्तु उसकी हमने सत्ता मान ली और जो सबमें ज्यों-का-त्यों पूर्ण है, जिसमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं होता, उस परमात्माका अभाव मान लिया । इस विपरीत धारणाको हमने इतना दृढ़ कर लिया है कि विचारके द्वारा इसको हटानेपर भी यह धारणा पुनः सामने आ जाती है । इसका संस्कार हमारे भीतर दृढ़तासे पड़ा हुआ है । परमात्मा पहले युगोंमें और थे, अब बदलकर और हो गये हैं‒ऐसा किसी शास्त्र, कथा आदिमें पढ़ने-सुननेमें नहीं आता । परन्तु शरीर बालकपनमें जैसा था, वैसा आज नहीं है‒यह सबके प्रत्यक्ष अनुभवमें आता है । फिर भी हम शरीरको जितना महत्त्व देते हैं, उतना परमात्माको नहीं देते, इसीलिये परमात्मप्राप्ति कठिन हो रही है । गीताप्रेसके संस्थापक, संचालक तथा संरक्षक श्रीजयदयालजी गोयन्दकाने कहा था कि ‘परमात्माकी प्राप्ति भी कठिन हो सकती है‒यह बात मेरी समझमें नहीं आती थी; परन्तु जब लोगोंपर अजमाइश की, उनको समझानेका प्रयास किया, तब हमें कठिनता मालूम दी ।’ हमारे भीतर असत्‌की सत्ता बैठी हुई है, इसीलिये परमात्मप्राप्तिमें कठिनता दीख रही है, अन्यथा इसमें कठिनताका प्रश्न ही पैदा नहीं होता । अभी कोई कहे कि रोटी बनाओ तो रोटी बनानेमें समय लगेगा । रोटी बनेगी, तब मिलेगी; क्योंकि वह मौजूद नहीं है । परन्तु जो चीज मौजूद है, उसकी प्राप्तिमें देरी क्यों ? परमात्मा सबके लिये सदा ज्यों-के-त्यों मौजूद हैं ।

         प्रश्न‒यह तो हम जानते ही हैं कि परमात्माकी सत्ता है और संसारकी सत्ता नहीं है, फिर भी अनुभव क्यों नहीं हो रहा है ?

       उत्तर‒वास्तवमें इसको जाना नहीं है, प्रत्युत सीखकर मान लिया है । अगर यह जान लें कि साँप काटनेसे आदमी मर जाता है तो क्या साँपको हाथसे पकड़ेगें ? ऐसे ही अगर यह जान लें कि यह असत्‌ है, नाशवान्‌ है तो क्या रुपये इकठ्ठे करनेकी मनमें आयेगी ? सुख भोगनेकी मनमें आयेगी ? झूठ, कपट, बेईमानी करनेकी मनमें आयेगी ?

         किसी आदमीसे पूछो तो वह यही कहेगा कि हम अभी थोड़े ही मरते हैं ! पर वास्तवमें जो भी मरता है, अभी मरता है । मरनेवाला अभी नहीं मरेगा तो क्या कल मरेगा अथवा परसों मरेगा ? मरनेवाला जब मरेगा, अभी मरेगा । परन्तु भीतर उलटी बात जँची हुई है कि हम थोड़े ही मरते हैं ! कारण यह है कि भीतरमें असत्‌की सत्ता बैठी हुई है ।

          हम धन कमा लेंगे, पढ़-लिखकर विद्वान् बन जायँगे, कई बातें सीख जायँगे, कला-कौशल सीख जायँगे आदि कृतिसाध्य बातोंकी तो हमें उम्मीद है, पर स्वतः नित्य-निरन्तर विद्यमान है, उस परमात्मतत्त्वकी उम्मीद ही नहीं होती ! उसकी तो तत्काल प्राप्तिकी उम्मीद होनी चाहिये । उसकी तत्काल प्राप्ति इसलिये होनी चाहिये कि वह भी मौजूद है और हम भी मौजूद हैं तथा वे भी हमसे मिलना चाहते हैं और हम भी उससे मिलना चाहते हैं । फिर देरीका कारण क्या है ? हमारे मनमें असत्‌की सत्ता और महत्ता बैठी हुई है, इसीलिये देरी हो रही है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे