।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
भय और आशाका त्याग

प्रश्न‒साधन, भजन, सत्संग करते हैं फिर भी संसारके प्रवाहका असर क्यों पड़ जाता है ?

उत्तर‒देखो भैया ! मैं एक बात कहता हूँ उसकी तरफ ध्यान दें । संसारका प्रभाव किसपर पड़ता है ? गहरा विचार करना । संसारका प्रभाव संसारपर ही पड़ता है । स्वरूपपर संसारका प्रभाव नहीं पड़ता । पहले प्रभाव पड़ा और अभी प्रभाव नहीं रहा । यह ज्ञान है कि नहीं ? इसका उत्तर दो ।

प्रश्न‒एक बात मनमें आती है कि ये सत्संगमें तो जँच जाता है पीछे नहीं रहता ।

उत्तर‒पीछे मत रहो । सत्संगमें जँच गयी है न । तो पीछे रहना तुम देखना चाहते हो, यही बहुत बड़ी गलती है । उसका सुधार कर लो अभी । सुधार यह है कि यह व्यवहारमें नहीं रहता अर्थात्‌ अन्तःकरणमें नहीं रहता और अन्तःकरणमें वृत्तियाँ तो व्यवहारके अनुसार होंगी । अगर वृत्तियाँ न हो तो व्यवहार कैसे होगा ? भोजन ही कैसे होगा ? बोलना भी कैसे होगा ? चलना भी कैसे होगा ? जैसा व्यवहार होगा वैसी वृत्तियाँ होंगी, पर व्यवहार और एकान्त दोनोंका ज्ञान किसीको होता है कि नहीं होता है ? दोनोंका ज्ञान जिसको होता है उसके ज्ञानमें व्यवहार और एकान्त है । इस बातको समझ लो तो अभी निहाल हो जाओ ।

मानो व्यवहार और व्यवहाररहित अक्रिय अवस्था । अक्रिय और सक्रिय‒ये दोनों अवस्थाएँ हैं । दोनों ही प्रवृत्ति हैं । अक्रिय भी प्रवृत्ति है और सक्रिय भी प्रवृत्ति है । ये तो तुमने सुना ही होगा कि सक्रिय प्रवृत्ति और अक्रिय प्रवृत्ति नहीं है, परन्तु अक्रिय भी प्रवृत्ति है और सक्रिय भी प्रवृत्ति है । अक्रिय और सक्रिय जिस प्रकाशमें प्रकाशित होते हैं उस प्रकाशमें प्रवृत्ति नहीं है । वह प्रकाश एकान्तमें बैठे हुए साफ दीखता है, व्यवहार करते हुए नहीं दीखता है । तो न दीखनेपर भी व्यवहारमें प्रवृत्तिका ज्ञान किसको हो रहा है ? प्रवृत्ति भी जाननेमें आती है । आती है न ? तो जाननापन तो रहता है कि नहीं ? केवल जानना है उसमें, प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनों नहीं हैं । बड़ी सीधी बात है, बहुत ही सरल बात है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों जिससे प्रकाशित होते हैं, उसमें प्रवृत्ति-निवृत्ति कुछ नहीं है । न प्रवृति है न निवृत्ति है । समझमें आ गया न ? तो इसमें तुम डटे रहो । वृत्तियाँका एक रूप देखना छोड़ दो आजसे । वृत्तियाँ एक रूप बनी रहें । ये आज तुम छोड़ दो मेरे कहनेसे । ये जबतक पकड़े रहोगे, तबतक तुम्हें सन्तोष नहीं होगा और ये आज ही छोड़ दो । अभी-अभी । व्यवहारमें कैसे ही रहो । क्योंकि वास्तवमें नित्य रहनेवाली चीज तो प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंका प्रकाशक है । तो निवृत्तिको क्यों इतना महत्त्व देते हो । वास्तविक तो प्रकाश है । प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों जिस प्रकाशसे प्रकाशित होते हैं, वह प्रकाश वास्तविक है । प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों अवास्तविक है । प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों सापेक्ष हैं । प्रवृत्तिकी दृष्टिसे निवृत्ति है और निवृत्तिकी दृष्टिसे प्रवृत्ति है । वास्तवमें जो प्रकाश है उसमें न निवृत्ति है न प्रवृत्ति है । ठीक है न यह ? तो इसमें तुम्हारी स्थिति है । मेरे कहनेसे मान लो और यह जो वहम है कि प्रवृत्ति जबतक रहती है और बीचमें जो असर पड़ता है, तबतक हम तो ठीक नहीं हुए, यह वहम छोड़ दो ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे