।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल सप्तमी, वि.सं.–२०७०, रविवार
भय और आशाका त्याग

(गत ब्लॉगसे आगेका)
ध्यान देना इस बातपर । किसके द्वारा छूटता है ? कि निवृत्ति आयी, प्रवृत्ति आयी । निवृत्ति गयी, प्रवृत्ति आयी । कहाँ गयी, कहाँ आयी बताओ । प्रवृत्ति-निवृत्तिका अभाव हुआ कि नहीं ? इनका अभाव हुआ तो ‘द्वारा’ की जरूरत क्या ? एक ऐसा आग्रह छोड़ दो । किसके द्वारा कि तुम्हारे खुदके द्वारा । ‘ऐसी वृत्ति निरन्तर रहे’ यह आग्रह छोड़ दो । इसमें हानि नहीं होगी । बहुत साफ़ है इसमें सन्देह नहीं है । प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों प्रकाशित होती हैं स्वतः और ये होती रहें । अपने कोई मतलब नहीं है । दुनियामात्रमें प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है कि नहीं ? जागृतमें काम करते हैं । नींदमें काम नहीं करते । दीखता है न । उससे तुम्हारे क्या फर्क पड़ता है क्या ? तुम्हारे प्रकाशमें जो स्वयं प्रकाश स्वरूप है उसमें फर्क नहीं पड़ता है न । तो इसकी चिन्ता क्यों करते हो ? ये जो संसारकी प्रवृत्ति-निवृत्ति है वही तुम्हारे शरीरकी प्रवृत्ति-निवृत्ति है । दोनों बिलकुल एक धातुकी हैं ।

प्रश्न‒संसारके प्रवाहमें बह जाते हैं जिससे सन्तोष नहीं होता ।

उत्तर‒यह तो गलती करते हो । सन्तोष क्यों नहीं होता है ? इसका कारण है कि आप समझते हैं कि अन्तःकरण निर्विकार रहे‒यह आपने पकड़ लिया । अन्तःकरण निर्विकार नहीं होता‒यह पकड़ छोड़ दो । अन्तःकरण निर्विकार रहना चाहिये‒यह छोड़ दो । निर्विकार कैसे रहेंगे, जब यह कार्य है प्रकृतिका । निर्विकार कैसे रहेगा ? इसमें तो विकार होगा ।

प्रश्न‒महाराजजी ! एक बात कहूँ, आप कहते हैं न कि ये छोड़ दो । तो एक भय-सा लगता है । ऐसा विचार आता है कि छोड़नेसे कहीं मेरा पतन न हो जाय ।

उत्तर‒इसलिये मैंने बार-बार कहा कि मेरे कहनेसे छोड़ दो । यह क्यों कहा ? क्योंकि भय है तुम्हें । तुम्हारे भयका असर है मेरेपर । तुम भयभीत हो रहे हो । इसलिये कहता हूँ तुम डरो मत । जबतक यह पकड़ है, तबतक वास्तविक स्थिति नहीं होगी । वास्तविक स्थितिमें यह पकड़ ही बाधक है और कोई बाधक नहीं है । प्रकाशमें पतन होता ही नहीं । प्रवृत्ति-निवृत्ति दोनोंमें प्रकाश समान रहता है । ये बताओ उसमें फर्क पड़ता है क्या ? उसमें फर्क नहीं पड़ता तो उसका पतन कैसे हो जायगा ? तुम मानते हो अन्तःकरणमें निर्विकारता आ जाय । अगर आ जाय तो‒
प्रकाशं च प्रवृत्तिं  च    मोहमेव  च  पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥
                                                    (गीता १४/२२)
ये कहना कैसे बनता ? प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह अगर होता, तो ‘न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति’ कैसे कहते ?

प्रश्न‒यह तो महाराजजी ! उन पुरुषोंकी बात है जिनको साक्षात्कार हो गया ।

उत्तर‒वे महापुरुष हम ही हैं । वे महापुरुष अलग नहीं हैं । हम ही महापुरुष हैं । प्रकाशका नाम ही महापुरुष है । डरो मत इसमें । बिलकुल डर नहीं । ये जो सामान्य प्रकाश है, इस स्थितिवालेको ही महापुरुष कहते हैं । महापुरुष कहो चाहे ब्रह्म कहो । उस सामन्य प्रकाशमें क्या फर्क पड़ता है ? तो सामान्य ब्रह्म है वह एक है । एक तो भय छोड़ दो और एक आगे कुछ विलक्षणता होगी, इस आशाको छोड़ दो । ये दो छोड़ दो । ये दो ही बाधक हैं असली ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे