।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
भय और आशाका त्याग

(गत ब्लॉगसे आगेका)
निषिद्ध आचरणकी इच्छा हो जाती है । तो निषिद्ध आचरण छूट जायगा । यह सुनकर डर लगता है न । तो छोड़ते डर लगता है इससे सिद्ध होता है कि निषिद्ध आचरणको आपने महत्त्व दिया है । और महत्त्व देकर छोड़ते हैं तो कैसे छूटेगा ? उसका आदर आपने कर दिया । उपेक्षा करो । एक करना, एक न करना दो चीज हुई । और एक उपेक्षा तीसरी चीज हुई । क्रिया करनेमें तो विधि करना है, निषिद्ध नहीं करना है । परन्तु भीतरमें विधि और निषेध दोनोंसे उदासीन रहो । क्योंकि विधि और निषेध दोनों दीखते हैं किसी प्रकाशमें । उस प्रकाशका सम्बन्ध न विधिके साथ है न निषेधके साथ है । विधिका सम्बन्ध निषेधके साथ है । निषेधकी निवृत्ति करनेके लिये विधि है । विधि रखनेके लिये विधि नहीं है । इसलिये विधि-निषेध, भय और आशा‒ये दोनों छोड़ दो । बात खयालमें आयी कि नहीं ? विधि और निषेधमें विधिका लोभ है और निषेधका भय है । ये भय और लोभ जबतक रहेंगे, तबतक आपकी स्वरूपमें स्थिति नहीं होगी । इसलिये भय और लोभकी बेपरवाही कर दो । ये छूट जायेंगे । बेपरवाही करो केवल बेपरवाही । आ गया भय तो आ गया । लोभ हो गया तो हो गया । आपकी अवस्थामें कहता हूँ । हर एकके लिये मैं नहीं कहता हूँ । हर एक बात तो समझेगा नहीं, उलटा असर हो जायगा और आपके उलटा असर नहीं होगा, नहीं होगा, नहीं होगा । क्योंकि ये समझमें आ गयी कि विधि और निषेध‒ये करना चाहिये और ये नहीं करना चाहिये, ये दोनों होते हैं और मिटते हैं, आते हैं और जाते हैं और आने-जानेवालोंकी रहनेवालेपर कोई जिम्मेवारी नहीं है, रहनेवालेपर कोई असर नहीं है, रहनेवालेमें कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है, न निषेधसे बनता है, न विधिसे बनता है !और न निषेधसे बिगड़ता है, न विधिसे बिगड़ता है, उसका बनता-बिगड़ता है ही नहीं, तो आपपर असर कैसे पड़ेगा ?
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येवं योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥
                                                   (गीता १४/२३)
         वह विचलित होता ही नहीं है । मानो ज्यों-का-त्यों रहता है यह अर्थ हुआ इसका । भय और आशा ये दोनों छोड़ो । भय और आशामें संसार-मात्र बँधा है । किसी प्रकारका न तो भय हो और न किसी प्रकारकी आशा हो । जितना चुप रह सको, चुप रहो । और हे नाथ ! मेरेसे नहीं छूटती कहते रहो । कह सकते हो कि नहीं ? जितना मिनट चुप रह सको चुप रह जाओ । इस शरणागतिमें और चुप रहनेमें बड़ी भारी ताकत है । तो आप निर्बलोंको बल आ जायगा और वह कार्य हो जायगा ।आपमें तो आ जायगा बल और काम हो जायगा सिद्ध । आपमें बल आयेगा निर्विकार रहनेसे और सिद्ध होगा शरण होनेसे । चुप होनेसे शक्ति आती है ।

यह बात अनुभव सिद्ध है कि बोलते-बोलते बोलना बन्द हो जायगा । पड़े रहो बोलनेकी शक्ति आ जायगी । शक्ति स्वतः आती है निष्क्रिय होनेसे और सक्रिय होनेसे शक्ति नष्ट होती है । जितने भोग-संग्रहके लिये काम करते हैं उनमें थकावट होती है । नींद लेनेसे थकावट दूर हो जाती है और शक्ति आती है । निष्क्रिय होनेसे करनेकी शक्ति आती है यह तो अनुभव है न ? इसलिये निष्क्रिय रहनेसे शक्ति आ जायगी । और हे नाथ ! ऐसा कहनेसे काम सिद्ध हो जायगा । यह रामबाण उपाय है । इसमें सन्देह हो तो बोलो । तो शरण होकर निसन्देह हो जाओ । यह तुम्हारा असली इलाज है ! इस अवस्थामें चुप होनेमें परिश्रम नहीं करना है । कोई क्रिया हो गयी तो हो गयी, नहीं हुई तो नहीं हुई । अपने मतलब नहीं । अपनी तरफसे कोई क्रिया न तो करो और न ही ना करो । दोनोंसे उदासीन रहो । क्रिया हो तो होती रहे । इस तरह तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष जिसको कहते हैं उसकी अभी-अभी सिद्धि हो गयी ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे