।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
भीमसेनी निर्जला एकादशी-व्रत (सबका)
गीताकी विलक्षण बात

(गत ब्लॉगसे आगेका)
सब-का-सब संसार, तीनों लोक, चौदह भुवन, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड निरन्तर अभावमें जा रहें हैं‒‘नासतो विद्यते भावः’ । परन्तु परमात्मा और उनके अंश जीवात्माका कभी अभाव नहीं होता‒‘नाभावो विद्यते सतः’ । हमने अपने जीवनमें कई कथाएँ सुनी हैं, व्याख्यान सुने हैं, शास्त्र पढ़े हैं, पर ऐसा कहीं सुनने, पढ़नेमें नहीं आया कि परमात्मा बदल गये, पहलेवाले नहीं रहे ! परमात्मा तो ‘है’ और संसार ‘नहीं’ है‒इन दोनोंके एक ही अन्त (तत्त्व) का तत्त्वदर्शी, अनुभवी महापुरुषोंने अनुभव किया है अर्थात्‌ इन दोनोंका निष्कर्ष एक परमात्मतत्त्व ही है—‘उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः’ (गीता २/१६) । तात्पर्य है कि सत्‌ (अपरिवर्तनशील) और असत्‌ (परिवर्तनशील) ‒ दोनों अलग-अलग हैं । सत्‌ असत्‌ नहीं हो सकता और असत्‌ सत्‌ नहीं हो सकता; परन्तु तत्त्वसे दोनों एक ही हैं । गीतामें आया है‒
विद्याविनयसम्पन्ने   ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥
                                                      (५/१८)
         तात्पर्य है कि ब्राह्मण और चाण्डाल, गाय और कुत्ता, हाथी और चींटी‒दोनों अलग-अलग होनेपर भी ज्ञानी उनमें एक समरूप परमात्माको देखता है । इसी तरह सत्‌ और असत्‌ अलग-अलग होनेपर भी भक्त उनमें एक भगवान्‌को ही देखता है‒‘त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्’ (गीता ११/३७) । जैसे दिन और रात‒दोनों सापेक्ष हैं, दिनकी अपेक्षा रात है और रातकी अपेक्षा दिन है, पर सूर्यमें न दिन है, न रात है अर्थात्‌ वह निरपेक्ष है । ऐसे ही सत्‌ और असत्‌ दोनों सापेक्ष हैं, पर परमात्मतत्त्व निरपेक्ष है । इसलिये तत्वदर्शी महापुरुष सत्‌ और असत्‌‒दोनोंके एक ही अन्त अर्थात्‌ सत्‌-तत्त्व (परमात्मतत्त्व) का अनुभव करते हैं ।

जो ‘है’, वह तो है ही और जो ‘नहीं’ है, वह है ही नहीं‒
है सो सुन्दर है सदा, नहिं सो सुन्दर नाहिं ।
नहिं सो परगट देखिये, है सो दीखे नाहिं ॥

        जो मिट रहा है, वह संसार है और जो टिक रहा है, वह परमात्मा है । जैसे गंगाजीका प्रवाह निरन्तर बहता हुआ समुद्रमें जा रहा है । रात्रिमें हम छिपकर परीक्षा करें तो भी उसका प्रवाह ज्यों-का-त्यों बह रहा है । गंगाजीको कोई देखे या न देखे, कोई जाने या न जाने, कोई माने या न माने, कोई परवाह नहीं । उसका प्रवाह तो निरन्तर अपने-आप स्वाभाविक बह रहा है । ऐसे ही यह सब-का-सब संसार निरन्तर बह रहा है, और बहते हुए अभाव (नाश) की तरफ जा रहा है । इस बहते हुए संसारमें वह परमात्मा ही ‘है’-रूपसे दीख रहा है । ‘संसार है’‒इसमें ‘संसार’ तो मिट रहा है और ‘है’ टिक रहा है ।
जासु सत्यता   तें जड़ माया ।
भास सत्य इव मोह सहाया ॥
                                    (मानस, बालकाण्ड ११७/४)
          यह जो संसार दीख रहा है, इसकी खुदकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, प्रत्युत यह परमात्माकी ही एक आभा है, झलक है, प्रकाश है । अतः आभा (संसार) पर दृष्टि न रखकर परमात्माकी तरफ ही दृष्टि रखना है, ‘नहीं’ को न देखकर ‘है’ को ही देखना है । इसीको गीताने ‘वासुदेवः सर्वम्’ कहा है । तात्पर्य है कि वह सत्‌ ही असत्‌-रूपसे दीख रहा है‒‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९/१९) । परमात्मतत्त्व ही संसाररूपसे दीख रहा है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे