।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
गीताकी विलक्षण बात

(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे चनेका आटा (बेसन) गेहूँ, बाजरी आदिके आटेसे भी फीका होता है, उसमें मिठास नहीं होती । उस आटेकी बूँदी बनाते हैं । फिर उस बूँदीको चीनीकी चाशनीमें डाल देते हैं । इससे वह मीठी बूँदी बन जाती है । वह बूँदी खानेमें बड़ी मीठी लगती है । उस बूँदीके आठ-दस दाने मुखमें लेकर कुछ देर चूसते रहें तो वह बिलकुल फीकी हो जाती है । कारण कि वह तो फीकी ही थी । उसमें जो मिठास थी, वह उसकी न होकर चीनीकी थी । इसी तरह संसार भी फीका है, अर्थात्‌ संसारका जो ‘है’-पना है, वह संसारका न होकर परमात्माका ही है । केवल रागके कारण ही संसारका ‘है’-पना दीखता है । परन्तु यह दृष्टान्त एकदेशीय है । कारण कि बूँदीको चूसनेसे उसकी मिठास तो निकल जाती है, पर फीका बेसन शेष रह जाता है । परन्तु परमात्माका अनुभव होनेपर संसारका संसाररूपसे अत्यन्त अभाव हो जाता है, कुछ भी नहीं बचता प्रत्युत परमात्मा ही बचते है‒‘शिष्यते शेषसंज्ञः’*
(२)
       संसारमें दो चीजें हैं‒पदार्थ और क्रिया । मात्र पदार्थ और क्रियाएँ भगवान्‌की हैं और भगवान्‌के ही स्वरूप हैं । इसलिये भगवान्‌ कहते हैं कि जितने भी पदार्थ हैं और जितनी भी क्रियाएँ हैं, उन सबको अपना न मानकर मेरे अर्पण कर दो‒
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं    भक्त्युपहृतमश्नामि     प्रयतात्मनः ॥
                                                     (गीता ९/२६)
       ‘जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य प्राप्त पदार्थ) को भक्तिपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मेरेमें तल्लीन हुए अन्तःकरणवाले भक्तके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट) को मैं खा लेता हूँ अर्थात्‌ अपनेमें मिला लेता हूँ‒एक कर देता हूँ ।’
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि   कौन्तये   तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
                                                     (गीता ९/२७)
        ‘हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे ।’

        धन, जमीन, मकान, कपड़े, गहने, अपना शरीर, माँ-बाप, स्त्री, बच्चे, भाई-बहन आदि जो कुछ है, सब-के-सब भगवान्‌के अर्पण कर दें । अर्पण करनेका अर्थ है‒उनमें मेरापन छोड़ दें । अर्पण करनेसे वस्तुएँ तो तोलाभर भी घटेंगी नहीं, पर अर्पक (अर्पण करनेवाला) निहाल हो जायगा । कारण कि अर्पित वस्तु भगवान्‌की और भगवत्स्वरूप ही थी । उसको अपना मानना अर्पककी गलती थी । अतः अर्पित करनेसे अर्पककी गलती, बेसमझी, आफत मिट जाती है । जैसे आहुति अग्निमें मिलकर अग्निरूप हो जाती है, ऐसे ही अर्पित वस्तु भगवान्‌में मिलकर भगवत्स्वरूप हो जाती है ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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           *गीतामें आया है‒‘यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ (४/३७) । यहाँ भी ऐसा समझना चाहिये कि अग्निसे लकड़ियाँ जलनेपर राख शेष रह जाती है, पर ज्ञानरूपी अग्निसे कर्म जलनेपर कर्म और कर्मफल (पदार्थमात्र) कुछ भी शेष नहीं रहता, प्रत्युत परमात्मतत्त्व ही शेष रहता है ।