।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा , वि.सं.–२०७०, सोमवार
मुक्ति और भक्ति

          भगवान्‌का अंश होनेसे जीवमात्रमें भगवान्‌के प्रति स्वतः एक आकर्षण विद्यमान है । यह सिद्धान्त है कि आकर्षण सजातीयतामें होता है; अतः अंशका अंशीकी तरफ स्वतः आकर्षण होता है; जैसे‒पृथ्वीका अंश होनेसे ऊपर फेंके गये पत्थरका स्वतः पृथ्वीकी तरफ (नीचे) आकर्षण होता है । जैसे भगवान्‌ और उनका अंश जीव‒दोनों अविनाशी है । परन्तु जब जीव अहम्‌के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, शरीरमें मैं-मेरापन कर लेता है, तब यही आकर्षण संसारकी तरफ हो जाता है । वास्तवमें संसारकी तरफ शरीरका ही आकर्षण होता है; क्योंकि शरीर समष्टि संसारका अंश है; परन्तु शरीरसे तादात्मयके कारण जीव उस आकर्षणको अपना मानता है ।

जीवमें जो एक स्वतःसिद्ध आकर्षण है, वह भगवान्‌की तरफ होनेसे ‘प्रेम’ और संसारकी तरफ होनेसे ‘राग’ हो जाता है । संसारका आकर्षण (राग) भी बढ़ता रहता है*और भगवान्‌का आकर्षण (प्रेम) भी बढ़ता रहता है । परन्तु दोनोंमें फर्क यह है कि अनित्य होनेसे संसारका आकर्षण भी अनित्य होता है और नित्य होनेसे भगवान्‌का आकर्षण भी नित्य होता है । इसलिये संसारका रस तो नीरसतामें बदल जाता है, पर प्रेमका रस सदा सरस ही रहता है । वह प्रेम-रस प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है, उसका कभी अन्त आता ही नहीं ! ‘दिने दिने नवं नवं नमामि नन्दसम्भवम् ।’

         एक मार्मिक बात है कि जैसे जीवका भगवान्‌की ओर आकर्षण है, ऐसे ही भगवान्‌का भी जीवकी ओर आकर्षण है‒‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस ७/८६/२)जीव तो संसारमें आकर्षण (राग) पैदा करके भगवान्‌से विमुख हो जाता है, पर भगवान्‌ कभी जीवसे विमुख नहीं होते । जीवके प्रति उनके प्रेममें कभी किंचिन्मात्र भी कमी नहीं आती; क्योंकि वे पूर्ण हैं । इस प्रेमके कारण ही भगवान्‌ जीवको निरन्तर अपनी ओर खींचते रहते हैं, उसको किसी भी अवस्था, परिस्थिति आदिमें टिकने नहीं देते ! कोई भी अवस्था, परिस्थिति नित्य नहीं रहती । जीव जिसको भी पकड़ता है, उसको भगवान्‌ छुड़ा देते हैं, यही भगवान्‌का जीवको अपनी ओर खींचना है । इतना ही नहीं, जीवको सांसारिक भोग और संग्रहसे स्वतः अरुचि, ग्लानि भी होती है; परन्तु हृदयमें भोग और संग्रहका महत्त्व होनेसे वह उनको पकड़े रखता है, छोड़ता नहीं । भगवान्‌ छुड़ाते रहते हैं और वह नया-नया पकड़ता रहता है ! आखिर भगवान्‌का अंश जो ठहरा !

        बच्चेका माँसे जितना प्रेम होता है, उससे भी बहुत प्रेम माँका बच्चेसे होता है । परन्तु बच्चा माँके प्रेमको पहचानता नहीं । अगर बच्चा माँके प्रेमको पहचान ले तो वह माँकी गोदीमें रो ही नहीं सकता ! अगर माँकी गोदीमें रोयेगा तो हँसेगा कहाँ ? ऐसे ही भगवान्‌का जीवसे कम प्रेम नहीं है । काकभुशुण्डिजी बालरूप भगवान्‌ श्रीरामके साथ खेलते-खेलते जब उनके पास आते हैं, तब भगवान्‌ हँसने लगते है और जब उनसे दूर चले जाते हैं, तब भगवान्‌ रोने लगते हैं‒‘आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं’ (मानस ७/७७ क) । यह भगवान्‌का जीवके प्रति कितना प्रेम है ! परन्तु अपनेको शरीर माननेके कारण, संसारमें आकर्षण (राग) होनेके कारण जीव भगवान्‌के आकर्षण (प्रेम) को पहचानता नहीं । अगर वह भगवान्‌के प्रेमको पहचान जाय तो उसका संसारमें आकर्षण हो ही नहीं !

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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              * न जातुः कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
                     हविषा   कृष्णवर्त्मेव   भूय    एवाभिवर्धते ॥
                                                (श्रीमद्भा ९/१९/१४; मनु॰ २/९४)

                     ‘जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई’ (मानस १/१८०/१; ६/१०२/१)

           † ‘प्रतिक्षणवर्धमानम्’ (नारद॰ ५४)

            प्रेम सदा बढ़िबौ करै, ज्यों ससिकला सुबेष ।
                  पै पुनो यामें नहीं,    ताते   कबहुँ   न  सेष ॥