।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण द्वितीया , वि.सं.–२०७०, मंगलवार
मुक्ति और भक्ति

(गत ब्लॉगसे आगेका)
         जबतक शरीरमें अपनापन है, भोगोंका महत्त्व है, राग है, आसक्ति है, तबतक भगवान्‌का प्रेम प्रकट नहीं होता । बाहरसे भोगोंका त्याग कर देनेपर भी भीतरमें भोगोंके प्रति एक सूक्ष्म आकर्षण रहता है, जिसको ‘रसबुद्धि’ कहते हैं । जबतक यह रसबुद्धि रहती है, तबतक भोग और संग्रहके सुखकी पराधीनता रहती है । इस रसबुद्धिके निवृत्त होनेपर पराधीनता नहीं रहती और स्वाधीनता आ जाती है । इस स्वाधीनताको ही ‘मुक्ति’ कहते हैं । जो पहले प्रकृतिकी परवशताके कारण ‘प्रकृतिस्थ’ था, वह प्रकृतिकी परवशता मिटनेपर ‘स्वस्थ’ हो जाता है । रसबुद्धि निवृत्त होनेपर भी संस्कार-(स्मृति-) रूपसे अहंकारकी एक गन्ध रह जाती है । परन्तु अहंकारकी इस गन्धको मिटानेके लिये कोई उद्योग नहीं करना पड़ता । साधनावस्थामें अपनी प्रक्रिया (साधन, मत) का एक आग्रह रहता है । सिद्ध (मुक्त) होनेपर यह आग्रह तो नहीं रहता, पर जिस साधनसे सिद्धि मिली है, उस साधनका एक महत्त्व (आदर) रहता है । यह महत्त्व ही अहंकारकी गन्ध है, जिसके कारण दार्शनिकोंमें तथा दर्शनोंमें मतभेद रहता है । परन्तु प्रेमकी प्राप्ति होनेपर यह अहंकारकी गन्ध भी निवृत्त हो जाती है और जीवकी परमात्माके साथ सहज एकता प्रकट हो जाती है ।

        ज्ञानयोगमें तो मुक्तिके बाद प्रेम प्राप्त होता है, पर भक्तियोगमें सीधे ही प्रेम प्राप्त हो जाता है । ज्ञानयोगके जिस साधकमें भक्तिके संस्कार होते हैं और जो मुक्तिको ही सर्वोपरि नहीं मानता, उसको मुक्तिमें सन्तोष नहीं होता । अतः ऐसे साधकको मुक्ति प्राप्त होनेके बाद प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है* । परन्तु जिस साधकमें भक्तिके विशेष संस्कार नहीं होते और जो मुक्तिको ही सर्वोपरि मानता है, वह सदा मुक्त ही रहता है अर्थात्‌ उसको प्रेमकी प्राप्ति होनी कठिन है । अपने मतका आग्रह और अभिमान प्रेमकी प्राप्तिमें आड़ लगा देता है ।

        जैसे, कोई मनुष्य राकेटमें बैठकर पृथ्वीकी गुरुत्वाकर्षण-शक्तिसे बाहर निकल जाता है, तो वह चन्द्रमाकी गुरुत्वाकर्षण-शक्तिमें प्रवेश कर जाता है अर्थात्‌ उसका आकर्षण चन्द्रमाकी तरफ हो जाता है । ऐसे ही सांसारिक रसबुद्धिकी निवृत्ति होनेपर जब साधक संसारके आकर्षणसे बाहर निकल जाता है, तब उसका आकर्षण स्वतः भगवान्‌की तरफ हो जाता है । संसारके आकर्षणसे बाहर निकलना मुक्ति है और भगवान्‌की तरफ आकर्षण होना ही भक्ति (प्रेम) है । मुक्तिमें एकरस तथा अखण्ड आनन्द है और भक्तिमें प्रतिक्षण वर्धमान तथा अनन्त आनन्द है ।

         प्रश्न‒सभी भेद अहम्‌से पैदा होते हैं, तो फिर अहम्‌का नाश होनेपर प्रेमी-प्रेमास्पदका भेद कैसे सम्भव है ?

        उत्तर‒तत्त्वसे प्रेमी और प्रेमास्पदमें किंचिन्मात्र भी भेद नहीं है । प्रेमी-प्रेमास्पदका भेद तो केवल प्रेमकी लीलाके लिये कल्पित है‒
द्वैतं  मोहाय   बोधात्प्राग्जाते   बोधे   मनीषया ।
भक्त्यर्थं   कल्पितं      द्वैतमद्वैतादपि   सुन्दरम् ॥
पारमार्थिकमद्वैतं       द्वैतं             भजनहेतवे ।
तादृशी यदि भक्तिः स्यात्सा तु मुक्तिशताधिका ॥
         ‘बोधसे पहलेका द्वैत मोहके लिये होता है । परन्तु बोध हो जानेपर भक्तिके लिये (बुद्धिसे) कल्पित द्वैत, अद्वैतसे भी अधिक सुन्दर (सरस) होता है । वास्तविक तत्त्व तो अद्वैत ही है, पर भजनके लिये द्वैत है । ऐसी यदि भक्ति है तो वह भक्ति मुक्तिसे भी सौगुनी श्रेष्ठ है ।’

         तात्पर्य है कि अहम्‌ मिटनेसे पहलेका द्वैत बन्धनके लिये है और अहम्‌ मिटनेके बादका द्वैत प्रेमके लिये है । ज्ञानमें तो द्वैतका अद्वैत होता है अर्थात्‌ दो होकर एक हो जाते हैं और भक्तिमें अद्वैतका द्वैत होता है अर्थात्‌ एक होकर दो हो जाते हैं । जीव और ब्रह्म एक हो जायँ तो ज्ञान होता है और एक ही ब्रह्म दो रूप हो जायँ तो भक्ति होती है ।
         एक ही अद्वैत तत्त्व प्रेमकी लीलाके लिये श्रीकृष्ण और श्रीजी‒इन दो रूपोंमें प्रकट होता है । दोनोंमें कौन प्रेमी है और कौन प्रेमास्पद‒इसका पता ही नहीं चलता; क्योंकि दोनों ही प्रेमी हैं और दोनों ही प्रेमास्पद हैं ! मुक्त होनेके बाद प्रेमी भक्त श्रीजीमें लीन हो जाते हैं अर्थात्‌ उनका दर्जा श्रीजीकी तरह हो जाता है । तात्पर्य है कि भगवान्‌में श्रीजीका तथा श्रीजीमें भगवान्‌का जैसा आकर्षण है, वैसा ही आकर्षण भगवान्‌में उन भक्तोंका तथा भक्तोमें भगवान्‌का हो जाता है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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* ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
                           समः  सर्वेषु  भूतेषु   मद्भक्तिं  लभते  पराम् ॥ (गीता १८/५४)
          ‘ब्रह्मभूत-अवस्थाको प्राप्त प्रसन्न मनवाला साधक न तो किसीके लिये शोक करता है और न किसीकी इच्छा करता है । ऐसा सम्पूर्ण प्राणियोंमें समभाववाला साधक मेरी पराभक्ति- (प्रेम-) को प्राप्त हो जाता है ।’