।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण तृतीया, वि.सं.–२०७०, बुधवार
वास्तविक तत्त्वका अनुभव


है सो सुन्दर है सदा, नहिं सो सुन्दर नाहिं ।
नहिं सो परगट देखिये,   है सो दिखे नाहिं ॥

कितनी विचित्र बात है कि परमात्मा हैं, पर वे दीखते नहीं और संसार नहीं है, पर वह दीखता है ! इसका कारण यह है कि हमारे पास देखनेकी जो शक्ति है, वह सब संसारकी है । जिस धातुका संसार है, उसी धातुकी हमारी इन्द्रियाँ और अन्तःकरण (मन-बुद्धि) हैं । इसलिये उनसे संसार ही दीखेगा, परमात्मा कैसे दीखेंगे ? इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि प्रकृतिके अंश हैं । प्रकृतिके अंशद्वारा प्रकृतिसे अतीत तत्त्वको कैसे देखा जा सकता है ? प्रकृतिसे अतीत परमात्मतत्त्वको तो अपने-आपसे अर्थात्‌ स्वयंसे ही देखा जा सकता है; क्योंकि स्वयं परमात्माका अंश है । तात्पर्य है कि शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि तथा संसार तत्त्वसे एक (नाशवान्‌, जड़) हैं और स्वयं तथा परमात्मा तत्त्वसे एक (अविनाशी, चेतन) हैं । विचार करें कि क्या शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि और परमात्माकी तात्त्विक एकता है ? कदापि नहीं । फिर उनके द्वारा परमात्माको कैसे देखा अथवा प्राप्त किया जा सकता है ? असम्भव बात है । अतः हम स्वयंसे देखेंगे तो परमात्मा दीखेंगे और शरीरसे देखेंगे तो संसार दीखेगा । रहनेवालेसे रहनेवाला ही दीखेगा और बदलनेवालेसे बदलनेवाला ही दीखेगा ।

स्वयंसे परमात्मा कैसे दीखते हैं‒इसपर विचार करें । प्रत्येक मनुष्यको ‘मैं हूँ’‒इस रूपमें अपनी सत्ता- (होनापन-) का अनुभव होता है । ‘मैं हूँ’‒इसमें ‘मैं’ प्रकृतिका अंश है और ‘हूँ’ परमात्माका अंश है । अतः ‘मैं’ की ‘नहीं’ के साथ और ‘हूँ’ की ‘है’ के साथ एकता है । ‘हूँ’ और ‘है’ का भेद ‘मैं’-पनके कारण ही है । अगर ‘मैं’-पन न रहे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ ही रहेगा । तात्पर्य यह हुआ कि स्वयंमें जो सत्ता अर्थात्‌ अपना होनापन है, वह वास्तवमें परमात्माका ही है । वह होनापन सब जगह समान रीतिसे स्वतः-स्वाभाविक परिपूर्ण है ।

हमसे यह भूल होती है कि हम परमात्मामें संसारको देखते हैं, जबकि देखना चाहिये संसारमें परमात्माको । ‘नहीं’ में ‘है’ को देखना तो सही है, पर ‘है’ में ‘नहीं’ को देखना गलती है; क्योंकि परमात्मा हैं और संसार नहीं है । इसलिये गीतामें आया है‒
समं   सर्वेषु   भूतेषु     तिष्ठन्तं   परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥
                                                         (१३/२७)
‘जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियोंमें परमात्माको नाशरहित और समरूपसे स्थित देखता है, वही वास्तवमें सही देखता है ।’

ऐसा कोई क्षण नहीं है, जिसमें संसार न बदलता हो । बदलना-ही-बदलना इसका स्वरूप है । परन्तु परमात्मा नहीं बदलनेवाले हैं । संसार रहे अथवा नष्ट हो जाय, वे नित्य-निरन्तर ज्यों-के-त्यों ही रहते हैं, उनमें कोई फर्क नहीं पड़ता । संसार कभी एक क्षण भी टिकता नहीं और परमात्मतत्त्व कभी एक क्षण भी मिटता नहीं । इसलिये जो बदलनेवाले नाशवान्‌ संसारको न देखकर निरन्तर रहनेवाले अविनाशी परमात्माको देखता है, वही सही देखता है‒‘विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति’ । परन्तु जो परमात्माको न देखकर संसारको देखता है, वह सही नहीं देखता‒
योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते ।
किं तेन न कृतं पापं चौरेणात्मापहारिणा ॥
                                                     (महा उद्योग ४२/३७)
‘जो अन्य प्रकारका (अविनाशी) होते हुए भी आत्माको अन्य प्रकारका (विनाशी शरीर) मानता है, उस आत्मघाती चोरने कौन-सा पाप नहीं किया अर्थात्‌ सभी पाप कर लिये ।’

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे