।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
वास्तविक तत्त्वका अनुभव

(गत ब्लॉगसे आगेका)
परमात्माके विषयमें द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्ठाद्वैत आदि अनेक मतभेद हैं, पर ‘सब कुछ परमत्मा ही हैं’‒यह सर्वोपरि सिद्धान्त है । सम्पूर्ण मत इसके अन्तर्गत आ जाते हैं । साधकोंके मनमें प्रायः यह भाव रहता है कि कोई परमात्माकी सार बात, तात्त्विक बात, बढ़िया बात बता दे तो हम जल्दी परमात्मप्राप्ति कर लें । वह सार बात, तात्त्विक बात, बढ़िया बात, सबका खास निचोड़, निष्कर्ष यही है कि केवल परमात्मा-ही-परमात्मा हैं । ‘मैं’ भी परमात्मा हैं, ‘तू’ भी परमात्मा हैं और ‘वह’ भी परमात्मा हैं अर्थात्‌ परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है ।

अब प्रश्न होता है कि सब कुछ परमात्मा कैसे हुए ? एक अपरा प्रकृति है, एक परा प्रकृति है और एक परा-अपराके मालिक परमात्मा हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहम्‌‒यह आठ प्रकारकी अपरा (परिवर्तनशील) प्रकृति है । जीव परा (अपरिवर्तनशील) प्रकृति है । अपरा और परा‒ये दोनों प्रकृतियाँ परमात्माका स्वभाव होनेसे परमात्मासे अभिन्न हैं अर्थात्‌ इन दोनोंकी परमात्मासे अलग स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । शरीरकी अपरा प्रकृतिके साथ और शरीरीकी परा प्रकृतिके साथ एकता है । इस प्रकार परमात्मासे अलग किंचिन्मात्र भी कोई सत्ता न होनेसे स्थूल-से-स्थूल पृथ्वीसे लेकर सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अहम्‌तक सब कुछ केवल परमात्मा ही हुए । इसलिये गीतामें अपरा, परा और वासुदेव अथवा क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम‒इन तीनोंका वर्णनका तात्पर्य इनको एक बतानेमें ही है, तीन बतानेमें नहीं है ।

अब प्रश्न होता है कि ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’‒इसका अनुभव कैसे हो ? जगत्‌की स्वतन्त्र सत्ता न होते हुए भी जीवने जगत्‌को स्वतन्त्र सत्ता दी है‒‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌’ (गीता ७/५) जगत्‌को सत्ता देनेमें मुख्य कारण है‒सुखभोगबुद्धि । जीवकी सुखभोगबुद्धिके कारण ही परमात्मा जीवको जड़ जगत्‌-रूपसे दीखने लग गये और जीव स्वयं भी जगत्‌-रूप हो गया*अतः परमात्मतत्त्वके अनुभवमें सुखभोगबुद्धि ही खास बाधक है ।

अब प्रश्न होता है कि सुखभोगबुद्धि कैसे नष्ट हो ? इसको मिटानेके तीन मुख्य साधन हैं‒कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । कर्मयोगके द्वारा सुखभोगबुद्धि सुगमतासे मिट सकती है । सम्पूर्ण सृष्टि पांचभौतिक होनेसे एक ही है । जैसे एक ही शरीरके अनेक अंग होते हैं, ऐसे ही सम्पूर्ण शरीर एक ही सृष्टिके अनेक अंग हैं । अतः जैसे मनुष्य अपने शरीरके सभी अंगोंसे अलग-अलग यथायोग्य व्यवहार करते हुए भी सभी अंगोंका समान रूपसे सुख और हित चाहता है, किसी भी अंगका दुःख और अहित नहीं चाहता, ऐसे ही साधकको सभी प्राणियोंसे यथायोग्य व्यवहार करते हुए भी समान रूपसे सबके सुख और हितका भाव रखना चाहिये और किसीका भी दुःख और अहित नहीं चाहना चाहिये ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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 * त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः     सर्वमिदं     जगत् ।
     मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥
                                                    (गीता ७/१३)
        ‘इन तीनों गुणरूप भावोंसे मोहित यह सम्पूर्ण जगत्‌ (प्राणिमात्र) इन गुणोंसे अतीत अविनाशी मुझे नहीं जानता ।’

  † आत्मौपम्येन सर्वत्र   समं  पश्यति  योऽर्जुन ।
      सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
                                                          (गीता ६/३२)
        ‘हे अर्जुन ! जो अपने शरीरकी उपमासे सब जगह अपनेको समान देखता है और सुख अथवा दुःखको भी समान देखता है, वह परम योगी माना गया है ।’