।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ कृष्ण दशमी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
एकादशी-व्रत कल है
दुर्गुणोंका त्याग


        आप खूब ध्यान दें, मनुष्यसे दोष उस समय होता है जब वह किसीसे कुछ चाहता है । अपना अभिमान होता है और सुख चाहता है, संयोगजन्य सुखकी अभिलाषा भीतर होती है । अर्जुनने पूछा कि मनुष्य पाप करना नहीं चाहता, फिर पाप क्यों हो जाता है ? भगवान्‌ने यही उत्तर दिया कि उसके मनमें सुख-भोगकी और संग्रहकी कामना है, चाहना है । जबतक यह चाहना रहेगी, तबतक पाप होता ही रहेगा । सावधान होनेपर भी गफलत हो जायगी ।

            इसके मिटानेका उपाय क्या है ? असली उपाय भीतरका प्रायश्चित है, पश्चात्ताप हो जाय, जलन पैदा हो जाय । जिस पाप-कर्मसे जितना सुख हुआ, उस सुखकी अपेक्षा पश्चात्ताप अधिक हो जाय और यह प्रतिज्ञा कर ले कि कभी किसीको धोखा नहीं दूँगा, ऐसी भूल कभी नहीं करूँगा, ऐसा पक्का विचार कर ले और उसपर डटा रहे तो पहले किया हुआ पाप नष्ट हो जायगा । परन्तु यदि विचार भी करता रहे फिर भी वैसा ही पाप करता रहता है तो वह नष्ट नहीं होता । नया-नया पाप होता रहता है, फिर पतन होता ही चला जायगा । पक्का पश्चात्ताप हो जाय कि अब ऐसा काम नहीं करेंगे, इसपर डटा रहेगा तो उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जायगा, निर्मल हो जायगा । जितना पश्चात्ताप अधिक होगा और जितना अपना विचार पक्का होगा, उतनी जल्दी अन्तःकरण शुद्ध होगा । ये दो चीजें बहुत दामी हैं, बड़ी श्रेष्ठ है, अन्तःकरणको निर्मल करनेवाली और पापोंका नाश करनेवाली हैं ।

         एक बातका खयाल रखना है कि मनुष्य स्वयं परमात्माका अंश है, स्वयं दोषी नहीं है, यह संयोगजन्य सुख लेनेसे ही दोषी बनता है । अपना अभिमान और कामना‒ये दो महान्‌ पतन करनेवाले हैं और इनसे लाभ कोई होनेवाला नहीं है । तो खूब समझनेकी बात है । हमारे इस बातका विचार आता है मनमें कि भाई लोग ध्यान नहीं देते । संसारसे सुखकी कामना और लोभ रहता है कि मेरे लाभ हो जायगा, इतना ले लूँ, इतना रख लूँ, इतना मार लूँ इससे मेरे सुख हो जायगा‒ऐसा भाव है, इसके समान धोखा देनेवाला कोई वैरी है ही नहीं । इतना इससे धोखा खाता है । सज्जनो ! आपके जँचे-न-जँचे; पर यह बात मेरी विचारी हुई है कि लाभ कोई-सा नहीं है और नुकसान बहुत भारी है । परन्तु मनुष्यको उसमें लाभ दीखता है और नुकसान नहीं दीखता‒यह अवस्था है ।
करहिं मोह बस नर अघ नाना ।
स्वारथ रत   परलोक नसाना ॥
                                        (मानस ७/४०/२)
         स्वार्थमें रत रहकर नाना प्रकारके पाप करता है । मूढ़ता भरी है भीतरमें, वहम रहता है कि मैं ठीक कर रहा हूँ, पर कर रहा है अपने-आप अपनी हत्या, अपना पतन और अपना नुकसान ।

        सज्जनो ! कृपा करके आजसे अन्याय छोड़ दो, पाप मत करो । अगर शान्ति, सुख चाहते हो तो दूसरोंका हक लेनेका विचार मत रखो; नहीं तो कोई बचा नहीं सकेगा, महान्‌ कष्टमें जाना ही पड़ेगा, क्योंकि पापोंको पकड़ लिया आपने, पापके बापको पकड़ लिया ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे