।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
ज्येष्ठ अमावस्या, वि.सं.–२०७०, शनिवार
अमावस्या, वटसावित्री-व्रत
दुर्गुणोंका त्याग


(गत ब्लॉगसे आगेका)
आज कहा जाय कि पाप मत करो । तो लोग कहते हैं कि महाराज ! आजकलके जमानेमें यह नहीं चल सकता । यह आपकी बात पुराने ढंगकी है, पुराने जमानेकी । इस जमानेमें ऐसा नहीं चल सकता । ऐसा करें, तो भूखों मर जायेंगे । जी नहीं सकते । आज सच्चाईके साथ कैसे करें ? लाख रुपया कमाते हैं तो लगभग आधा टैक्सका देना पड़ता है । हमें एक भाईने कहा कि अब बताओ क्या कमावें, क्या खावें ? इस जमानेमें मनुष्य सच्चाईसे काम नहीं कर सकता । हम कहते हैं कि सरकार कृपा कर रही है कि लोभके वशीभूत होकर ज्यादा संग्रह मत करो । क्रियात्मक उपदेश दे रही है । साधारण खर्चा करो, साधारण कमाओ और खाओ । उससे पाप कोई नहीं करवा सकता । कुछ रुपये कमानेतक छूट है न टैक्सकी ? उतनेके भीतर-भीतर कमाओ । कहते हैं कि खर्चा कहाँसे लावें, छोरीका ब्याह कैसे करें ? मुश्किल हो जाती है, सभ्यता है । सभ्यताको तिलांजलि दे दो, पानी दे दो, पानीमें खड़े होकर । हमें वह सभ्यता नहीं रखनी । हमारी बेइज्जती हो जाय, उससे डरेंगे नहीं । पुण्य करते हुए, शुभ काम करते हुए, धर्मके ऊपर चलते हुए अगर लोग निन्दा करें, तो करें ।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
                                                  (गीता १६/२१)
         अपना पतन करनेवाले काम, क्रोध और लोभ‒ये तीन प्रकारके नरकोंके दरवाजे हैं । इनमें प्रविष्ट हो गया, वह तो नरकोंमें ही जायगा । यदि भगवान्‌को याद करे कि अब ऐसा नहीं करेंगे तो नहीं जायगा । जब कभी सुधर जाय उमरभरमें, कब कभी चेत हो जाय और विचार पक्का हो जाय कि पाप कभी नहीं करूँगा, तो पूरा प्रायश्चित्त हो जायगा । भगवान्‌की कृपासे उसको बल भी मिल जायगा, धर्म मिल जायगा और वह सन्त बन जायगा । ऊपरसे वह भाई हो चाहे बहिन हो, गृहस्थ हो या कुछ भी हो, भगवान्‌ तो भीतरका भाव देखते हैं ‘भावग्राही जनार्दनः’ वे भाव-भोक्ता हैं । भाव जिसका निर्मल हो गया, वह तो निर्मल हो ही गया । केवल बाहरसे निर्मल होनेसे, अच्छा बननेमें देरी लगती है, पर यह भाव हो जाय कि हम पाप नहीं करेंगे, इतनेमें बहुत जल्दी शुद्ध हो जाता है ।

        ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेका’ निश्चय कर लिया कि पारमार्थिक मार्गमें ही चलना है, कुछ भी हो जाय । ‘अपि चेत्सुदुराचारः’‒पापी-से-पापी हो तो उसे भी ‘साधुरेव स मन्तव्यः’‒साधु ही मानना चाहिये, क्योंकि ‘सम्यग्व्यवसितो हि सः’‒उसने पक्का निश्चय कर लिया । उस भावके अनुसार वह पवित्र हो जाता है ।
रहति न प्रभु चित चूक किए की ।
करत सुरति  सय  बार  हिए की ॥
                                        (मानस १/२८/३)
        पहले दोष बन गये, उन बातोंको भगवान्‌ याद नहीं करते । जिसका भाव अच्छा है और इधर चलना चाहता है, भगवान्‌ उसे सौ बार याद करते हैं कहीं उसे भूल न जाऊँ । ऐसे प्रभुके रहते हुए भय किस बातका ? सच्चे हृदयसे पापका त्याग कर दो । अभी तो लोभमें आकर पाप कर बैठते हैं; परन्तु आगे दशा क्या होगी ? इसका कुछ विचार किया है ? धन यहीं रहेगा, सम्पत्ति यहीं रहेगी, पर आप जावोगे । उम्रभरमें खर्च कर सकोगे नहीं । पापसे कमाया हुआ धन खर्च नहीं किया जायगा, बाकी बचेगा और पाप किया हुआ कर्म पीछे नहीं रहेगा, साथ चलेगा और महान्‌ दण्ड भोगना पड़ेगा । समझदार आदमीको तो जल्दी चेत कर लेना चाहिये, इसलिये केवल विचार हो जाय कि अब पाप नहीं करेंगे, अन्याय नहीं करेंगे ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे