।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण नवमी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
सत्स्वरूपका अनुभव

(गत ब्लॉगसे आगेका)
किसीकी ताकत नहीं कि असत्‌के साथ चिपक जाय, असत्‌के साथ रह जाय । कैसे रह जायगा ? असत्‌ तो परिवर्तनशील है । पर मेहनत सब उसीके साथ चिपकनेकी होती है । कोरी फालतू मेहनत होती है । अपने होनेपनमें क्या फर्क पड़ता है ? क्रियाओं और पदार्थोंके परिवर्तनको अपनेमें मान लो तो आपकी मरजी है, होनेपनमें कोई परिवर्तन है नहीं । आने-जानेवालोंमें परिवर्तन है, प्रकाशमें परिवर्तन नहीं है । ऐसे जो सबका प्रकाशक है, स्वयंप्रकाश है, प्रकाशस्वरूप है, उसमें कभी परिवर्तन नहीं होता । जो है, उसमें नहीं-पना नहीं हो सकता और जो नहीं है, उसमें है-पना नहीं हो सकता‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । असत्‌की सत्ता नहीं होती और सत्‌का अभाव नहीं होता । सत्‌ सदा ज्यों-का-त्यों, अटल, अखण्ड रहता है और उसमे सबकी स्थिति स्वतः है । परन्तु जो मिटता है, उसमें आप स्थिति मान लेते हैं कि मैं धनी हूँ, मैं रोगी हूँ, मैं नीरोग हूँ, मेरा सम्मान है, मेरा अपमान है । मिटनेवालेको आप पकड़ नहीं सकोगे, चाहे युग-युगान्तरोंतक मेहनत कर लो ! अपनी स्वतःसिद्ध सत्तामें स्थित हो जाओ तो गुणातीतके सब लक्षण आपमें आ जायँगे । वास्तवमें वे लक्षण आपमें हैं, पर बदलनेवालेके साथ मिल जानेसे उनका अनुभव नहीं हो रहा है ।

         श्रोता‒महाराजजी ! क्रियाओंमें भी तो वही सत्ता है !

स्वामीजी‒क्रियाओंकी सत्ता है ही नहीं । क्रियाएँ तो आरम्भ होती हैं और नष्ट होती हैं । मैंने व्याख्यान शुरू किया और अब खत्म हो रहा है । क्रिया और पदार्थ सब खत्म होनेवाले हैं ।

श्रोता‒बिना सत्ताके क्रिया कैसे हुई ? सत्ता है, तभी तो क्रिया हुई !

स्वामीजी‒तो बस, सत्ता हुई मूलमें, क्रिया कहाँ हुई ? यही तो हम कहते हैं ! क्रियाका अभाव होता है । सत्ताका अभाव कभी होता ही नहीं । बिलकुल प्रत्यक्ष बात है । इसका कोई खण्डन कर सकता ही नहीं । किसीकी ताकत नहीं कि इसका खण्डन कर दे । असत्‌की सत्ता भी सत्‌के अधीन है, सत्‌की सत्ता भी सत्‌के अधीन है । असत्‌की स्वतन्त्र सत्ता कभी हुई नहीं, कभी होगी नहीं, कभी हो सकती नहीं । इसलिये अपने स्वरूपमें स्थित रहो, इधर-उधर चलो ही मत । ‘समदुःखसुखः स्वस्थः’‒सुख-दुःख तो आते-जाते हैं, इसमें आप स्वतः ही सम हो । अगर आप सम नहीं हो तो यह सुख हुआ और यह दुःख हुआ‒इन दोनोंका ज्ञान कैसे होता है ? सुख आता है तो आप सुखके साथ मिलकर सुखी हो जाते हो और दुःख आता है तो दुःखके साथ मिलकर दुःखी हो जाते हो । अगर आप सुखके साथ मिल ही जाते तो फिर दुःखके साथ नहीं मिल सकते और दुःखके साथ मिल जाते तो फिर सुखके साथ नहीं मिल सकते । अतः वास्तवमें आप सुख-दुःख दोनोंसे अलग हो, पर भूलसे अपनेको सुख-दुःखके साथ मिला हुआ मानकर सुखी-दुःखी हो जाते हो । सुख और दुःख तो बदलनेवाले है, पर आप न बदलनेवाले हो । आपके सामने कभी सुख आता है, कभी दुःख, कभी मान होता है, कभी अपमान; कभी आदर होता है, कभी निरादर; कभी विद्वत्ता आती है, कभी मूर्खता; कभी रोग आता है, कभी नीरोगता; पर आप वही रहते हो । अगर वही नहीं रहते तो इन सबका अलग-अलग अनुभव कैसे होता ? अगर अलग-अलग अनुभव होता है तो फिर आपका अभाव कैसे हुआ ? सुख-दुःख आदिका अभाव हुआ । अतः कृपानाथ ! आप इतनी कृपा करो कि अपने होनेपनमें स्थित रहो । आपका होनापन स्वतः सिद्ध है, कृतिसाध्य नहीं है । उधर दृष्टि नहीं डाली, बस इतनी बात है !

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे