।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया, वि.सं.–२०७०, बुधवार
श्रीजगदीश-रथयात्रा
कर्मयोगका तत्त्व
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
        जब मनुष्य अपने लिये कर्म करता है, तब उसका प्रकृतिके साथ सम्बन्ध हो जाता है । प्रकृतिका सम्बन्ध जन्म-मरण देता है । जो अपने लिये कुछ नहीं करता, उसको कोई जन्म-मरण कैसे दे सकता है ? दुनियामें जितने कर्म होते हैं, उनका पाप-पुण्य हमें नहीं लगता है । हम अपने लिये जो कर्म करते हैं, उन्हींका पाप-पुण्य हमें लगता है । अगर हम अपने लिये कुछ न करें तो हमें कोई पाप-पुण्य नहीं लगेगा । अपने लिये कुछ भी करेंगे और कुछ भी चाहेंगे तो योग नहीं होगा, प्रत्युत भोग होगा तथा कर्मोंसे बन्धन होगा‒‘कर्मणा बध्यते जन्तुः ।’

        मैं तो सीधी-सादी बात कहता हूँ कि अगर आप घरमें रहते हैं तो घरमें रहनेकी विद्याको सीख लें । बड़ी सीधी-सरल विद्या है । अगर आप सास हैं तो बहू-बेटोंके लिये मैं सास और माँ हूँ, वे मेरे लिये नहीं हैं । आप बहू हैं तो सास-ससुरके लिये मैं हूँ, वे मेरे लिये नहीं हैं । आप पति हैं तो स्त्रीके लिये मैं हूँ, वह मेरे लिये नहीं है । यह एक धारणा आप कर लो कि उनके लिये मैं हूँ, वे मेरे लिये नहीं हैं । वे मेरे लिये हैं—यह भाव भीतरसे मिटा दो तो आपकी खटपट मिट जायगी । यह घरमें रहनेकी, संसारमें रहनेकी असली विद्या है ।

        चेला बने हो तो केवल गुरुके लिये बने हो । अपने लिये गुरुकी जरूरत नहीं है । मेरे लिये गुरु नहीं, मैं गुरुके लिये हूँ । मेरे लिये पिता नहीं, मैं पिताके लिये हूँ । मेरे लिये पुत्र नहीं, मैं पुत्रके लिये हूँ । आपके जितने भी सांसारिक सम्बन्ध हैं, वे सब-के-सब सम्बन्ध केवल उनकी सेवा करनेके लिये हैं । लेनेके लिये कोई सम्बन्ध है ही नहीं । लेनेका खाता ही उठा दें । तो क्या होगा ? जो सब जगह हैं, सब समयमें हैं, सबके हैं, सबमें हैं, उनकी प्राप्ति हो जायगी ।

         साधु हैं तो हमारे लिये गृहस्थ नहीं हैं, हम गृहस्थके लिये हैं । वे हमारे लिये नहीं हैं, हम उनके लिये हैं‒इतनी-सी बात है ! यह बात छोटी-सी है, पर महान्‌ लाभ देनेवाली है । अगर आपकी नीयत प्राणिमात्रका हित करनेकी है तो आपका बन्धन नहीं होगा । इसमें धनकी, विद्याकी, योग्यता आदिकी कोई जरूरत नहीं है । कर्मयोगी वही होता है, जो जैसी भी परिस्थिति आये, उसका उपयोग केवल दूसरोंके हितके लिये करता है ।

        हमने पहले अपने सुखके लिये किया है, इसीलिये दूसरोंके सुखके लिये करना है, नहीं तो इसको करनेकी भी जरूरत नहीं थी । सेवा करनेसे पुराना कर्जा उतर जायगा और नया कर्जा लोगे नहीं तो क्या होगा ? जैसे किसी दुकानदारको अपनी दुकान उठानी हो तो उसपर जो कर्जा है, उसको तो चूका दे और दूसरोंसे जो लेना है, वे दें तो ले ले, नहीं तो छोड़ दे । ऐसा करनेसे दुकान उठ जायगी । अगर सब-का-सब रुपया लेना चाहेगा तो दुकान उठेगी नहीं । अपनेपर जो कर्जा है, वह पूरा-का-पूरा दे दे । ऐसे ही दूसरोंका हित करना कर्जा चुकाना है, इसमें कोई महत्ताकी बात नहीं है । नया कर्जा लेना नहीं है अर्थात्‌ किसीसे किंचिन्मात्र भी सुख चाहना नहीं है । नया कर्जा लिया नहीं और पुराना कर्जा चुका दिया तो मुक्ति नहीं होगी तो क्या होगी ?

        दूसरेका हित कितना करे ? अपनी शक्तिके अनुसार । मालपर जगात लगती है । इनकम (आय) पर टैक्स लगता है । माल ही नहीं तो जगात किस बातकी ?

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌से अपनापन’ पुस्तकसे