(गत ब्लॉगसे
आगेका)
जब मनुष्य
अपने लिये कर्म
करता है, तब उसका
प्रकृतिके साथ
सम्बन्ध हो जाता
है । प्रकृतिका
सम्बन्ध जन्म-मरण
देता है । जो अपने
लिये कुछ नहीं
करता, उसको कोई
जन्म-मरण कैसे
दे सकता है ? दुनियामें
जितने कर्म होते
हैं, उनका पाप-पुण्य
हमें नहीं लगता
है । हम अपने लिये
जो कर्म करते हैं,
उन्हींका पाप-पुण्य
हमें लगता है ।
अगर हम अपने लिये
कुछ न करें तो हमें
कोई पाप-पुण्य
नहीं लगेगा । अपने
लिये कुछ भी करेंगे
और कुछ भी चाहेंगे
तो योग नहीं होगा,
प्रत्युत भोग
होगा तथा कर्मोंसे
बन्धन होगा‒‘कर्मणा बध्यते
जन्तुः ।’
मैं तो
सीधी-सादी बात
कहता हूँ कि अगर
आप घरमें रहते
हैं तो घरमें रहनेकी
विद्याको सीख
लें । बड़ी सीधी-सरल
विद्या है । अगर
आप सास हैं तो बहू-बेटोंके
लिये मैं सास और
माँ हूँ, वे मेरे
लिये नहीं हैं
। आप बहू हैं तो
सास-ससुरके लिये
मैं हूँ, वे मेरे
लिये नहीं हैं
। आप पति हैं तो
स्त्रीके लिये
मैं हूँ, वह मेरे
लिये नहीं है । यह
एक धारणा आप कर
लो कि उनके लिये
मैं हूँ, वे मेरे
लिये नहीं हैं
। वे मेरे लिये
हैं—यह भाव भीतरसे
मिटा दो तो आपकी
खटपट मिट जायगी
। यह घरमें रहनेकी,
संसारमें रहनेकी
असली विद्या है
।
चेला
बने हो तो केवल
गुरुके लिये बने
हो । अपने लिये
गुरुकी जरूरत
नहीं है । मेरे
लिये गुरु नहीं,
मैं गुरुके लिये
हूँ । मेरे लिये
पिता नहीं, मैं
पिताके लिये हूँ
। मेरे लिये पुत्र
नहीं, मैं पुत्रके
लिये हूँ । आपके
जितने भी सांसारिक
सम्बन्ध हैं, वे
सब-के-सब सम्बन्ध
केवल उनकी सेवा
करनेके लिये हैं
। लेनेके लिये
कोई सम्बन्ध है
ही नहीं । लेनेका
खाता ही उठा दें
। तो क्या होगा
? जो सब जगह हैं, सब
समयमें हैं, सबके
हैं, सबमें हैं,
उनकी प्राप्ति
हो जायगी ।
साधु
हैं तो हमारे लिये
गृहस्थ नहीं हैं,
हम गृहस्थके लिये
हैं । वे हमारे
लिये नहीं हैं,
हम उनके लिये हैं‒इतनी-सी
बात है ! यह बात छोटी-सी
है, पर महान् लाभ
देनेवाली है ।
अगर आपकी नीयत
प्राणिमात्रका
हित करनेकी है
तो आपका बन्धन
नहीं होगा । इसमें
धनकी, विद्याकी,
योग्यता आदिकी
कोई जरूरत नहीं
है । कर्मयोगी
वही होता है, जो
जैसी भी परिस्थिति
आये, उसका उपयोग
केवल दूसरोंके
हितके लिये करता
है ।
हमने
पहले अपने सुखके
लिये किया है, इसीलिये
दूसरोंके सुखके
लिये करना है, नहीं
तो इसको करनेकी
भी जरूरत नहीं
थी । सेवा करनेसे
पुराना कर्जा
उतर जायगा और नया
कर्जा लोगे नहीं
तो क्या होगा ? जैसे
किसी दुकानदारको
अपनी दुकान उठानी
हो तो उसपर जो कर्जा
है, उसको तो चूका
दे और दूसरोंसे
जो लेना है, वे दें
तो ले ले, नहीं तो
छोड़ दे । ऐसा करनेसे
दुकान उठ जायगी
। अगर सब-का-सब रुपया
लेना चाहेगा तो
दुकान उठेगी नहीं
। अपनेपर जो कर्जा
है, वह पूरा-का-पूरा
दे दे । ऐसे
ही दूसरोंका हित
करना कर्जा चुकाना
है, इसमें कोई महत्ताकी
बात नहीं है । नया
कर्जा लेना नहीं
है अर्थात् किसीसे
किंचिन्मात्र
भी सुख चाहना नहीं
है । नया कर्जा
लिया नहीं और पुराना
कर्जा चुका दिया
तो मुक्ति नहीं
होगी तो क्या होगी
?
दूसरेका
हित कितना करे
? अपनी शक्तिके
अनुसार । मालपर
जगात लगती है ।
इनकम (आय) पर टैक्स
लगता है । माल ही
नहीं तो जगात किस
बातकी ?
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्से
अपनापन’ पुस्तकसे
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