।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल तृतीया, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
कर्मयोगका तत्त्व
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
दूसरेके हितके लिये जितना कर सकते हो, कर दो; बस, आपका काम एकदम पूरा हो गया ! जो नहीं कर सकते, उसकी कोई आशा भी नहीं रख सकता । आप मेरेसे सुननेकी आशा रखते हो, पर मेरेको जाननेवाले क्या मेरेसे ऐसी आशा रखते हैं कि स्वामीजी दस हजार रुपये दे दें ? जो चीज मेरे पास नहीं है, उस चीजकी आशा आप नहीं रखते । ऐसे ही जो चीज आपके पास नहीं है, उसकी आशा भगवान्‌ रखेंगे क्या ? क्या भगवान्‌ आप-जितने भी समझदार नहीं हैं ? आप जितना कर सकते हैं, उतना करनेमें कमी न रखें ।

       आपके पास चार चीजें हैं‒समय, समझ, सामग्री और सामर्थ्य (शक्ति) । आपके पास ये चारों चीजें जितनी हैं, उतनी-की-उतनी दूसरोंके हितमें लगा दो तो कल्याण हो जायगा । आपके पास जितना है, उतना लगा दो‒इतनी ही आशा भगवान्‌ रखते हैं और इतनी ही आशा संसार रखता है । अगर दूसरे आपसे अधिक आशा रखते हैं तो यह उनकी गलती है । समय पूरा दे दिया, अब और समय कहाँसे लायें ? चौबीस घण्टे दे दिये, अब पचीसवाँ घण्टा कहाँसे लायें ? जितनी समझ है, सामग्री है, सामर्थ्य है, वह सब लोगोंके हितमें लगा दी, अब अधिक कहाँसे लायें ? आपके पास जो कुछ है, उसको दूसरोंके हितमें लगानेका भाव हो जाय कि वह हमारा और हमारे लिये नहीं है, प्रत्युत दूसरोंका और दूसरोंके लिये है, तो असंगता स्वतः प्राप्त हो जायगी ।

        असंगता हमारा स्वरूप है‒‘असंगो हि अयं पुरुषः’ (बृहदारण्यक४/३/१५) । जो असंगता ज्ञानयोगीको विचार करनेसे प्राप्त होती है, वही असंगता कर्मयोगीको दूसरोंके लिये कर्म करनेसे प्राप्त हो जाती है । इन दो श्लोकोंको खूब ध्यान देकर पढ़ो, याद कर लो‒
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः   सम्यगुभयोर्विन्दते     फलम् ॥
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं    तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥
                                                     (गीता ५/४-५)
          ‘बेसमझ लोग ही सांख्य (ज्ञानयोग) और योग (कर्मयोग) को अलग-अलग बताते है, न कि पण्डितजन । कारण कि इन दोनोंमेंसे एक साधनमें भी अच्छी तरहसे स्थित मनुष्य दोनोंके फलरूप परमात्माको प्राप्त कर लेता है । ज्ञानयोगी जिस तत्त्वको प्राप्त करते हैं, कर्मयोगी भी उसी तत्त्वको प्राप्त करते हैं । अतः जो मनुष्य ज्ञानयोग और कर्मयोगको फलरूपमें एक देखता है, वही ठीक देखता है ।’

        कोई भी पढ़ा-लिखा आदमी इन श्लोकोंपर विचार करके विवाद नहीं कर सकता, इतनी पक्की बात है ! ज्ञानके बिना मुक्ति नहीं हो सकती; कर्मयोगसे अन्तःकरणका मल-दोष दूर होता है‒ऐसा मान लो तो कोई हर्ज नहीं; क्योंकि इस सिद्धान्तको भी मैं मानता हूँ, मेरा विरोध नहीं है । परन्तु एक बात अधिक मानता हूँ कि कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों ही साधन स्वतन्त्रतासे मुक्ति करते हैं । गीता स्पष्ट कहती है‒
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥
                                                  (गीता ५/६)
           ‘महाबाहो ! कर्मयोगके बिना ज्ञानयोग सिद्ध होना कठिन है । मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है ।’

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌से अपनापन’ पुस्तकसे