।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
कर्मयोगका तत्त्व
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
        इसलिये अपने स्वार्थका, अभिमानका, आसक्तिका, कामनाका त्याग करना है; क्योंकि ये सब हमारा सम्बन्ध संसारके साथ जोड़ते हैं । याद रखो, संसारके साथ सम्बन्ध केवल हमारा जोड़ा हुआ है । परन्तु परमात्माके साथ सम्बन्ध स्वतःसिद्ध है, जोड़ा हुआ नहीं है । इसमें भी विलक्षण बात यह है कि पदार्थोंने, शरीरने, दूसरोंने, किसीने भी आपको नहीं बाँधा है, आपके साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । आपने ही उनके साथ सम्बन्ध जोड़ा है । इसलिये आप इस सम्बन्धको छोड़ना चाहो तो छोड़ सकते हो ।

       रुपयोंने कभी नहीं कहा कि हम तुम्हारे हैं, तुम हमारे हो । मकानोंने कभी नहीं कहा कि हम तुम्हारे हैं, तुम हमारे हो । अकेले आपने ही मेरे रुपये, मेरा मकान, मेरा शरीर, मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा अहंकार‒ऐसे मेरापन किया है । इसलिये अकेले आपको ही छोड़ना पड़ेगा । प्रकृति और प्रकृतिके कार्य (शरीर-संसार) ने कभी आपको अपना नहीं कहा है, कभी आपको अपना नहीं माना । वह तो तेजीसे जा रहा है, खत्म हो रहा है । आप उसको अपना मानते हैं‒यही बन्धन है । उसको अपना न मानकर सेवामें लगा दें तो उसका प्रवाहमात्र संसारकी तरफ हो जायगा और आप स्वयं ज्यों-के-त्यों निर्लेप रह जायँगे ।

          श्रोता‒भीतरमें जो अज्ञान है,उसको मिटानेके लिये क्या करें ?

     स्वामीजी‒स्थूलशरीरसे की जानेवाली क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे किया जानेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे की जानेवाली समाधि भी केवल संसारके हितके लिये हो तो फिर सब अज्ञान मिट जायगा । जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा और चिन्मय तत्त्वकी स्वतः जागृति हो जायगी ।

         आपके पास जो धन है, पद है, वह अपने लिये बिलकुल नहीं है । उसको अपना मान लिया‒यह बेईमानी है । इस बेईमानीको मिटाना है और कुछ नहीं करना है । साधक हो, पर बेईमानी भी नहीं छोड़ सकते और कल्याण चाहते हो ! स्थूलशरीरको अपना मानना बेईमानी है, सूक्ष्मशरीरको अपना मानना बेईमानी है और कारणशरीरको अपना मानना बेईमानी है । स्थूल, सूक्ष्म और कारण‒इन तीनों शरीरोंका सम्बन्ध संसारके साथ है, आपके साथ नहीं । ये तीनों आपके नहीं हैं और आप इनके नहीं हैं ।

        यदि पापका फल (दुःख) हमारेको बिना माँगे मिलता है तो पुण्यका फल (सुख) बिना माँगे क्यों नहीं मिलेगा ? उसको झख मारकर मिलना पड़ेगा । क्या बीमारीकी कभी चाहना करते हो ? उद्योग करते हो ? कभी ज्योतिषीसे पूछते हो कि क्या करें, बीमारी नहीं आयी ? महाराज, देखो तो, कब आयेगी ? पाँच-सात वर्ष हो गये, हमारे घरमें कोई मरा नहीं, कौन कब मरेगा‒ऐसी इच्छा होती है क्या ? दस वर्ष हो गये, व्यापारमें घाटा नहीं लगा, कब लगेगा‒यह चाहना होती है क्या ? क्या घाटेके लिये उद्योग करते हो ? फिर भी लगता है कि नहीं ? तात्पर्य है कि जैसे बिना चाहे दुःख मिलता है, ऐसे ही बिना चाहे सुख भी मिलता है, फिर सुखकी चाहना क्यों करें ?

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌से अपनापन’ पुस्तकसे