(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
इसलिये
अपने
स्वार्थका,
अभिमानका,
आसक्तिका, कामनाका
त्याग करना
है; क्योंकि
ये सब हमारा सम्बन्ध
संसारके साथ
जोड़ते हैं । याद
रखो, संसारके
साथ सम्बन्ध
केवल हमारा
जोड़ा हुआ है ।
परन्तु
परमात्माके
साथ सम्बन्ध
स्वतःसिद्ध
है, जोड़ा हुआ
नहीं है । इसमें भी
विलक्षण बात
यह है कि
पदार्थोंने,
शरीरने,
दूसरोंने,
किसीने भी
आपको नहीं
बाँधा है,
आपके साथ
सम्बन्ध
नहीं जोड़ा है ।
आपने ही उनके
साथ सम्बन्ध
जोड़ा है ।
इसलिये आप इस
सम्बन्धको
छोड़ना चाहो
तो छोड़ सकते
हो ।
रुपयोंने
कभी नहीं कहा
कि हम
तुम्हारे
हैं, तुम
हमारे हो ।
मकानोंने
कभी नहीं कहा
कि हम
तुम्हारे
हैं, तुम
हमारे हो ।
अकेले आपने
ही मेरे
रुपये, मेरा
मकान, मेरा शरीर,
मेरा मन, मेरी
बुद्धि, मेरा
अहंकार‒ऐसे
मेरापन किया
है । इसलिये
अकेले आपको
ही छोड़ना
पड़ेगा ।
प्रकृति और
प्रकृतिके
कार्य
(शरीर-संसार)
ने कभी आपको
अपना नहीं
कहा है, कभी
आपको अपना
नहीं माना ।
वह तो तेजीसे
जा रहा है,
खत्म हो रहा
है । आप
उसको अपना
मानते हैं‒यही
बन्धन है । उसको अपना न
मानकर
सेवामें लगा
दें तो उसका प्रवाहमात्र
संसारकी तरफ
हो जायगा और
आप स्वयं
ज्यों-के-त्यों
निर्लेप रह
जायँगे ।
श्रोता‒भीतरमें
जो अज्ञान
है,उसको
मिटानेके
लिये क्या
करें ?
स्वामीजी‒स्थूलशरीरसे
की जानेवाली
क्रिया,
सूक्ष्मशरीरसे
किया
जानेवाला
चिन्तन और
कारणशरीरसे की
जानेवाली
समाधि भी
केवल
संसारके
हितके लिये
हो तो फिर सब
अज्ञान मिट
जायगा ।
जड़तासे
सम्बन्ध-विच्छेद
हो जायगा और
चिन्मय तत्त्वकी
स्वतः
जागृति हो
जायगी ।
आपके पास जो
धन है, पद है, वह
अपने लिये
बिलकुल नहीं
है । उसको
अपना मान
लिया‒यह
बेईमानी है ।
इस
बेईमानीको
मिटाना है और
कुछ नहीं
करना है ।
साधक हो, पर
बेईमानी भी
नहीं छोड़
सकते और कल्याण
चाहते हो ! स्थूलशरीरको
अपना मानना
बेईमानी है,
सूक्ष्मशरीरको
अपना मानना
बेईमानी है
और कारणशरीरको
अपना मानना
बेईमानी है ।
स्थूल,
सूक्ष्म और
कारण‒इन
तीनों
शरीरोंका
सम्बन्ध
संसारके साथ
है, आपके साथ
नहीं । ये
तीनों आपके
नहीं हैं और
आप इनके नहीं
हैं ।
यदि
पापका फल
(दुःख)
हमारेको
बिना माँगे
मिलता है तो
पुण्यका फल
(सुख) बिना
माँगे क्यों
नहीं मिलेगा ?
उसको झख
मारकर मिलना
पड़ेगा । क्या
बीमारीकी
कभी चाहना
करते हो ?
उद्योग करते
हो ? कभी
ज्योतिषीसे
पूछते हो कि
क्या करें, बीमारी
नहीं आयी ?
महाराज, देखो
तो, कब आयेगी ?
पाँच-सात
वर्ष हो गये,
हमारे घरमें
कोई मरा नहीं, कौन
कब मरेगा‒ऐसी
इच्छा होती
है क्या ? दस
वर्ष हो गये,
व्यापारमें
घाटा नहीं
लगा, कब लगेगा‒यह
चाहना होती
है क्या ? क्या
घाटेके लिये
उद्योग करते
हो ? फिर भी
लगता है कि
नहीं ?
तात्पर्य है
कि जैसे
बिना चाहे
दुःख मिलता
है, ऐसे ही
बिना चाहे
सुख भी मिलता
है, फिर सुखकी
चाहना क्यों
करें ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्से
अपनापन’
पुस्तकसे
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