(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
जो
हमें
पापोंका फल
तो
जबर्दस्ती
भुगताये और पुण्योंके
फलके लिये
हमारेसे नाक
रगड़वाये, वह
भी कोई
भगवान् हो
सकता है ? अगर
वह हमें
जिलाना
चाहता है तो
रोटी दे दे,
नहीं तो हमें
जीनेकी गरज
नहीं है ।
किसी चीजके
लिये हम उसको
क्यों कहें ? हमारी
अपेक्षा
उसको गरज
ज्यादा है ।
इसलिये
निःशंक हो
जाओ,
निश्चिन्त
हो जाओ, निर्भय
हो जाओ और
निःशोक हो
जाओ । न शंका
है, न चिन्ता
है, न भय है, न
शोक है !
तत्परतासे
अपने
कर्तव्य-कर्मका
पालन करो‒
तस्मादसक्तः
सततं कार्यं
कर्म समाचर ।
असक्तो
ह्याचरन्कर्म
परमाप्नोति
पूरुषः ॥
कर्मणैव
हि
संसिद्धिमास्थिता
जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि
सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि
॥
(गीता ३/१९-२०)
‘तू
निरन्तर
आसक्तिरहित
होकर कर्तव्य-कर्मका
भलीभाँति
आचरण कर;
क्योंकि
आसक्तिरहित
होकर कर्म
करता हुआ
मनुष्य
परमात्माको
प्राप्त हो
जाता है ।
राजा
जनक-जैसे
अनेक
महापुरुष भी
कर्मके द्वारा
ही
परमसिद्धिको
प्राप्त हुए
हैं । इसलिये
लोकसंग्रहको
देखते हुए भी
तू (निष्कामभावसे)
कर्म करने
योग्य है ।’
कर्मयोगका
प्रचार नहीं
है, पुस्तकें
नहीं हैं,
जानकर नहीं
हैं, इसलिये
इसमें
कठिनता
दीखती है ।
वास्तवमें
कठिनता नहीं
है । कर्मयोग
बहुत सुगम है,
सरल है । करना
चाहो तो सरल
हो जायगा ।
कामनाके
कारण पहले
कठिनता
मालूम देगी,
पर कामना
छूटनेपर
सुगम हो
जायगा ।
कर्मयोग
बहुत ही
विलक्षण चीज
है ।
गीताने
बहुत ही
अलौकिक बात
बतायी है कि
आप जहाँ हैं,
जिस वर्णमें
हैं, जिस
आश्रममें
हैं, जैसी
परिस्थितिमें
हैं, केवल
उसीका
सदुपयोग करना
है । उसीसे
मुक्ति हो
जायगी ! न कहीं
जाना है, न
वर्ण बदलना
है, न आश्रम
बदलना है, न
सम्प्रदाय
बदलना है, न
देश बदलना है,
न वेश बदलना
है । बदलना है
मनका भाव ।
केवल
प्राप्त
परिस्थितिका
सदुपयोग
करना है ।
नारायण
!
नारायण !!
नारायण !!!
‒ ‘भगवान्से
अपनापन’
पुस्तकसे
साधकके
भीतर हर समय
यह भाव रहना
चाहिये कि
मैं यहाँका
निवासी नहीं
हूँ,
प्रत्युत
(भगवान्का
अंश होनेसे)
भगवद्धामका
निवासी हूँ ।
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अपनी
कमाईमें
किसीका हकका
एक कण भी न आ जाय‒इस
बातकी पूरी
सावधानी
रखनी चाहिये ।
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जब
चेतन जड़से
तादात्मय कर
लेता है, तब
परिछिन्नता अर्थात्
अहंता
उत्पन्न
होती है ।
अहंतासे ‘ममता’
उत्पन्न
होती है,
जिससे विकार
पैदा होते
हैं । ममतासे ‘कामना’
उत्पन्न
होती है,
जिससे
अशान्ति
पैदा होती है ।
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साधक
ऐसा मानें कि
मैं जो कुछ
करता हूँ, वह भगवान्की
पूजा है और जो
कुछ हो रहा है,
वह भगवान्की
लीला है ।
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वर्तमानमें
मनुष्य
पशुसे भी
नीचे गिरता
चला जा रहा है;
क्योंकि पशु
तो अपने
निर्वाहकी
वस्तु ही
लेता है,
दूसरोंका हक
नहीं मारता,
पर मनुष्य
दूसरोंका भी हक
मारकर
संग्रह करता
है ।
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शरीरकी
आवश्यकताओंकी
पूर्तिका प्रबन्ध
तो
परमात्माकी
तरफसे है, पर
तृष्णाकी
पूर्तिके
लिये कोई
प्रबन्ध
नहीं ।
‒ ‘अमृतबिन्दु’
पुस्तकसे
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