।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल पंचमी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
कर्मयोगका तत्त्व


(गत ब्लॉगसे आगेका)
जो हमें पापोंका फल तो जबर्दस्ती भुगताये और पुण्योंके फलके लिये हमारेसे नाक रगड़वाये, वह भी कोई भगवान्‌ हो सकता है ? अगर वह हमें जिलाना चाहता है तो रोटी दे दे, नहीं तो हमें जीनेकी गरज नहीं है । किसी चीजके लिये हम उसको क्यों कहें ? हमारी अपेक्षा उसको गरज ज्यादा है । इसलिये निःशंक हो जाओ, निश्चिन्त हो जाओ, निर्भय हो जाओ और निःशोक हो जाओ । न शंका है, न चिन्ता है, न भय है, न शोक है ! तत्परतासे अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करो‒
तस्मादसक्तः सततं      कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म    परमाप्नोति पूरुषः ॥
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि     सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥
                                                 (गीता ३/१९-२०)
    ‘तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्मका भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है । राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्मके द्वारा ही परमसिद्धिको प्राप्त हुए हैं । इसलिये लोकसंग्रहको देखते हुए भी तू (निष्कामभावसे) कर्म करने योग्य है ।’

       कर्मयोगका प्रचार नहीं है, पुस्तकें नहीं हैं, जानकर नहीं हैं, इसलिये इसमें कठिनता दीखती है । वास्तवमें कठिनता नहीं है । कर्मयोग बहुत सुगम है, सरल है । करना चाहो तो सरल हो जायगा । कामनाके कारण पहले कठिनता मालूम देगी, पर कामना छूटनेपर सुगम हो जायगा । कर्मयोग बहुत ही विलक्षण चीज है ।

       गीताने बहुत ही अलौकिक बात बतायी है कि आप जहाँ हैं, जिस वर्णमें हैं, जिस आश्रममें हैं, जैसी परिस्थितिमें हैं, केवल उसीका सदुपयोग करना है । उसीसे मुक्ति हो जायगी ! न कहीं जाना है, न वर्ण बदलना है, न आश्रम बदलना है, न सम्प्रदाय बदलना है, न देश बदलना है, न वेश बदलना है । बदलना है मनका भाव । केवल प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करना है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘भगवान्‌से अपनापन’ पुस्तकसे

साधकके भीतर हर समय यह भाव रहना चाहिये कि मैं यहाँका निवासी नहीं हूँ, प्रत्युत (भगवान्‌का अंश होनेसे) भगवद्धामका निवासी हूँ ।
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       अपनी कमाईमें किसीका हकका एक कण भी न आ जाय‒इस बातकी पूरी सावधानी रखनी चाहिये ।
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          जब चेतन जड़से तादात्मय कर लेता है, तब परिछिन्नता अर्थात्‌ अहंता उत्पन्न होती है । अहंतासे ‘ममता’ उत्पन्न होती है, जिससे विकार पैदा होते हैं । ममतासे ‘कामना’ उत्पन्न होती है, जिससे अशान्ति पैदा होती है ।
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         साधक ऐसा मानें कि मैं जो कुछ करता हूँ, वह भगवान्‌की पूजा है और जो कुछ हो रहा है, वह भगवान्‌की लीला है ।
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          वर्तमानमें मनुष्य पशुसे भी नीचे गिरता चला जा रहा है; क्योंकि पशु तो अपने निर्वाहकी वस्तु ही लेता है, दूसरोंका हक नहीं मारता, पर मनुष्य दूसरोंका भी हक मारकर संग्रह करता है ।
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         शरीरकी आवश्यकताओंकी पूर्तिका प्रबन्ध तो परमात्माकी तरफसे है, पर तृष्णाकी पूर्तिके लिये कोई प्रबन्ध नहीं ।

‒ ‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे