प्रकृति
और पुरुष‒दोनोंको
ही अनादि कहा गया
है‒‘प्रकृतिं
पुरुषं चैव विद्ध्यनादी
उभावपि’ (गीता १३/१९) । अनादि होते हुए
भी दोनोंका स्वभाव
अलग-अलग है । प्रकृतिमें
तो निरन्तर क्रिया
होती है; किन्तु
पुरुषमें क्रिया
होती ही नहीं ।
दोनोंके इस
भेदको ठीक तरहसे
समझ लेना चाहिये
।
शास्त्रोंमें
वर्णन आता है कि
प्रकृतिकी एक
अक्रिय अवस्था
होती है और एक सक्रिय
अवस्था होती है
। परन्तु वास्तवमें
सक्रिय अवस्थाकी
अपेक्षासे अक्रिय
अवस्था कही जाती
है । प्रकृतिकी
सूक्ष्म क्रिया
अक्रिय अवस्थामें
भी कभी बन्द नहीं
होती । जैसे, हम
कभी जागते हुए
काम-धंधा करते
हैं और कभी सब काम-धंधा
छोड़कर नींद लेते
हैं; परन्तु शरीरके
नाशकी क्रिया
कभी बन्द नहीं
होती । नींदमें
भी तीन तरहकी क्रिया
होती है । एक क्रिया
नींदके पकनेकी
होती है*, एक
क्रिया थकावट
मिटाकर ताजगी
आनेकी होती है
और तीसरी एक क्रिया
शरीरके नाशकी
(उम्र नष्ट होनेकी)
होती है । नाशकी
यह क्रिया स्वतः-स्वाभाविक
निरन्तर होती
रहती है । जब सृष्टि
पैदा होती है, तब
भी यह क्रिया होती
है और जब सृष्टिका
लय हो जाता है, तब
भी यह क्रिया होती
है । सृष्टिका
लय होनेपर प्रकृति
निष्क्रिय कही
जाती है, पर किस
विषयमें ? सृष्टि-रचनाके
विषयमें । वास्तवमें
प्रकृति कभी निष्क्रिय
नहीं होती । जाग्रत्में,
स्वप्नमें, सुषुप्तिमें,
मूर्च्छामें,
समाधिमें, सर्गमें,
प्रलयमें, महासर्गमें,
महाप्रलयमें,
हर समय प्रकृतिमें
क्रिया होती रहती
है । मन, बुद्धि,
इन्द्रियाँ, शरीर,
धन, सम्पत्ति, वैभव
आदि तथा तारे, नक्षत्र,
सूर्य, चन्द्रमा,
पृथ्वी, समुद्र
आदि जितना दृश्य
(प्रकृतिका कार्य)
दीखता है, सबमें
प्रतिक्षण क्रिया
हो रही है । इस प्राकृत
क्रियामें उत्पत्ति
और विनाशका एक
क्रम (प्रवाह) चलता
है और यह क्रम ही
स्थितिरूपसे
दीखता है, वास्तवमें
स्थिति है नहीं
। जैसे, हम कहते
हैं कि गंगाजीका
जल कलकी जगह ही
बह रहा है तो इसमें
दो बातें हैं‒(१)
‘कलकी जगह’ और (२)
‘बह रहा है’ । तात्पर्य
है कि कलकी जगह
दीखनेपर भी जल
स्थिर नहीं है,
प्रत्युत निरन्तर
बह रहा है । इसी
तरह ये शरीर-संसार
स्थिर दीखते हुए
भी निरन्तर बह
रहे हैं, नाशकी
तरफ जा रहे हैं
। परन्तु परमात्मतत्त्व
और अपने स्वरूपमें
क्रिया नहीं है
। ये सदा ज्यों-के-त्यों
रहते हैं । अगर
इनमें किंचिन्मात्र
भी क्रिया होती
तो ये सदा ज्यों-के-त्यों
नहीं रहते, प्रत्युत
बदल जाते ।
प्रकृतिकी
प्रत्येक क्रिया
हमारे स्वरूपसे
निरन्तर अलग हो
रही है और अलग है
। यह सबका अनुभव
है कि बालकपनमें
मैं ऐसा करता था
और आज मैं ऐसा करता
हूँ । परन्तु बालकपनमें
मैं जो था, वही मैं
आज हूँ । बालकसे
जवान और जवानसे
बूढ़ा हो गया‒यह
प्राकृत क्रिया
हुई और मैं वही
हूँ‒यह अक्रिय
स्वरूप हुआ । बालकसे
जवान और जवानसे
बूढ़ा होनेके लिये
कोई उद्योग नहीं
करना पड़ता, प्रत्युत
यह परिवर्तनरूप
क्रिया शरीरमें
स्वतः-स्वाभाविक
हो रही है । स्वयंने शरीरके
साथ अपना सम्बन्ध
मान लिया, इसलिये
शरीरमें होनेवाली
क्रिया अपनेमें
दीखने लग गयी;
जैसे‒मैं बालक
हूँ, मैं जवान हूँ,
मैं बूढ़ा हूँ, मैं
रोगी हूँ, मैं नीरोग
हूँ आदि । शरीरके
साथ अपना सम्बन्ध
मानना ही अज्ञान
है और शरीरको स्वयंसे
सर्वथा अलग अनुभव
कर लेना ही ज्ञान
है‒
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं
यत्तज्ज्ञानं
मतं मम ।
(गीता १३/२)
साधकको ऐसा
अनुभव करना चाहिये
कि जितनी भी क्रिया
होती है, वह सब शरीरमें
होती है । उम्र
भी शरीरकी ही होती
है । स्वयंकी उम्र
नहीं होती । काल
भी शरीरको ही खाता
है । चाहे स्थूलशरीरकी
क्रिया हो, चाहे
सूक्ष्मशरीरकी
चिन्तन, मनन, ध्यान
आदि क्रिया हो,
चाहे कारणशरीरकी
समाधि हो†, सबको
काल निरन्तर खा
रहा है । परन्तु
स्वयंको काल नहीं
खाता । स्वयंमें
कोई क्रिया नहीं
है । वह सम्पूर्ण
क्रियाओंका साक्षी
है । उस क्रियारहित
स्वयंमें
अपनी स्वाभाविक
स्थितिका अनुभव
करना ही मुक्ति
है और क्रियासहित
शरीरमें स्थित
होना ही बन्धन
है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सहज साधना’ पुस्तकसे
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* नींद लेते
समय कोई बीचमें
ही हमें जगा देता
है तो हम कहते हैं
कि कच्ची नींदमें
जगा दिया । इससे
सिद्ध होता है
कि नींदमें भी
पकनेकी क्रिया
होती है ।
† समाधिमें भी
क्रिया होती है,
तभी उससे व्युत्थान
होता है ।
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