।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल षष्ठी, वि.सं.–२०७०, रविवार
श्रीस्कन्दषष्ठी-व्रत
नित्ययोग तथा उसका अनुभव
 

      प्रकृति और पुरुष‒दोनोंको ही अनादि कहा गया है‒‘प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि’ (गीता १३/१९) । अनादि होते हुए भी दोनोंका स्वभाव अलग-अलग है । प्रकृतिमें तो निरन्तर क्रिया होती है; किन्तु पुरुषमें क्रिया होती ही नहीं । दोनोंके इस भेदको ठीक तरहसे समझ लेना चाहिये ।

        शास्त्रोंमें वर्णन आता है कि प्रकृतिकी एक अक्रिय अवस्था होती है और एक सक्रिय अवस्था होती है । परन्तु वास्तवमें सक्रिय अवस्थाकी अपेक्षासे अक्रिय अवस्था कही जाती है । प्रकृतिकी सूक्ष्म क्रिया अक्रिय अवस्थामें भी कभी बन्द नहीं होती । जैसे, हम कभी जागते हुए काम-धंधा करते हैं और कभी सब काम-धंधा छोड़कर नींद लेते हैं; परन्तु शरीरके नाशकी क्रिया कभी बन्द नहीं होती । नींदमें भी तीन तरहकी क्रिया होती है । एक क्रिया नींदके पकनेकी होती है*, एक क्रिया थकावट मिटाकर ताजगी आनेकी होती है और तीसरी एक क्रिया शरीरके नाशकी (उम्र नष्ट होनेकी) होती है । नाशकी यह क्रिया स्वतः-स्वाभाविक निरन्तर होती रहती है । जब सृष्टि पैदा होती है, तब भी यह क्रिया होती है और जब सृष्टिका लय हो जाता है, तब भी यह क्रिया होती है । सृष्टिका लय होनेपर प्रकृति निष्क्रिय कही जाती है, पर किस विषयमें ? सृष्टि-रचनाके विषयमें । वास्तवमें प्रकृति कभी निष्क्रिय नहीं होती । जाग्रत्‌में, स्वप्नमें, सुषुप्तिमें, मूर्च्छामें, समाधिमें, सर्गमें, प्रलयमें, महासर्गमें, महाप्रलयमें, हर समय प्रकृतिमें क्रिया होती रहती है । मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर, धन, सम्पत्ति, वैभव आदि तथा तारे, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, समुद्र आदि जितना दृश्य (प्रकृतिका कार्य) दीखता है, सबमें प्रतिक्षण क्रिया हो रही है । इस प्राकृत क्रियामें उत्पत्ति और विनाशका एक क्रम (प्रवाह) चलता है और यह क्रम ही स्थितिरूपसे दीखता है, वास्तवमें स्थिति है नहीं । जैसे, हम कहते हैं कि गंगाजीका जल कलकी जगह ही बह रहा है तो इसमें दो बातें हैं‒(१) ‘कलकी जगह’ और (२) ‘बह रहा है’ । तात्पर्य है कि कलकी जगह दीखनेपर भी जल स्थिर नहीं है, प्रत्युत निरन्तर बह रहा है । इसी तरह ये शरीर-संसार स्थिर दीखते हुए भी निरन्तर बह रहे हैं, नाशकी तरफ जा रहे हैं । परन्तु परमात्मतत्त्व और अपने स्वरूपमें क्रिया नहीं है । ये सदा ज्यों-के-त्यों रहते हैं । अगर इनमें किंचिन्मात्र भी क्रिया होती तो ये सदा ज्यों-के-त्यों नहीं रहते, प्रत्युत बदल जाते ।

        प्रकृतिकी प्रत्येक क्रिया हमारे स्वरूपसे निरन्तर अलग हो रही है और अलग है । यह सबका अनुभव है कि बालकपनमें मैं ऐसा करता था और आज मैं ऐसा करता हूँ । परन्तु बालकपनमें मैं जो था, वही मैं आज हूँ । बालकसे जवान और जवानसे बूढ़ा हो गया‒यह प्राकृत क्रिया हुई और मैं वही हूँ‒यह अक्रिय स्वरूप हुआ । बालकसे जवान और जवानसे बूढ़ा होनेके लिये कोई उद्योग नहीं करना पड़ता, प्रत्युत यह परिवर्तनरूप क्रिया शरीरमें स्वतः-स्वाभाविक हो रही है । स्वयंने शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया, इसलिये शरीरमें होनेवाली क्रिया अपनेमें दीखने लग गयी; जैसे‒मैं बालक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं बूढ़ा हूँ, मैं रोगी हूँ, मैं नीरोग हूँ आदि । शरीरके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही अज्ञान है और शरीरको स्वयंसे सर्वथा अलग अनुभव कर लेना ही ज्ञान है‒
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।
                                              (गीता १३/२)
         साधकको ऐसा अनुभव करना चाहिये कि जितनी भी क्रिया होती है, वह सब शरीरमें होती है । उम्र भी शरीरकी ही होती है । स्वयंकी उम्र नहीं होती । काल भी शरीरको ही खाता है । चाहे स्थूलशरीरकी क्रिया हो, चाहे सूक्ष्मशरीरकी चिन्तन, मनन, ध्यान आदि क्रिया हो, चाहे कारणशरीरकी समाधि हो, सबको काल निरन्तर खा रहा है । परन्तु स्वयंको काल नहीं खाता । स्वयंमें कोई क्रिया नहीं है । वह सम्पूर्ण क्रियाओंका साक्षी है । उस क्रियारहित स्वयंमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव करना ही मुक्ति है और क्रियासहित शरीरमें स्थित होना ही बन्धन है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सहज साधना’ पुस्तकसे
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            * नींद लेते समय कोई बीचमें ही हमें जगा देता है तो हम कहते हैं कि कच्ची नींदमें जगा दिया । इससे सिद्ध होता है कि नींदमें भी पकनेकी क्रिया होती है ।

           समाधिमें भी क्रिया होती है, तभी उससे व्युत्थान होता है ।