।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल सप्तमी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
नित्ययोग तथा उसका अनुभव

(गत ब्लॉगसे आगेका)
        क्रिया और अक्रियाको दूसरे शब्दोंमें प्रवृत्ति और निवृत्ति भी कह सकते हैं । संसारकी प्रत्येक प्रवृत्तिकी स्वतः निवृत्ति हो रही है । प्रवृत्तिके समय भी निवृत्ति ज्यों-की-त्यों विद्यमान है । हम सोते हैं, जागते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, सुनते हैं, बोलते हैं तो इन सब क्रियाओंमें भी नाशकी तरफ जानेवाली क्रिया (निवृत्ति) निरन्तर हो रही है । यह निवृत्ति नित्य है । इसका कभी नाश नहीं होता । इस नित्य निवृत्तिको ही गीताने ‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (३/२८), ‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते’ (५/९) आदि पदोंसे कहा है ।

       हम पदार्थोंकी प्राप्तिके लिये प्रवृत्ति करते हैं, पर वास्तवमें प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत निवृत्ति ही होती है । जैसे, धन प्राप्त हो गया तो वास्तवमें धनकी निवृत्ति हुई है । किसी आदमीको पचास वर्ष धनी रहना है और एक वर्ष बीत गया तो अब वह पचास वर्ष धनी नहीं रहेगा, उसकी एक वर्षकी धनवत्ता निवृत्त हो गयी । इस तरह क्रियामात्र निरन्तर हमारेसे निवृत्त हो रही है अर्थात्‌ अलग हो रही है । परन्तु संयोगकी रुचिके कारण हमें निवृत्तिमें भी प्रवृत्ति दीखती है । अगर संयोगकी रुचि मिट जाय तो नित्ययोगकी प्राप्ति हो जायगी ।

      अपने स्वरूपमें अथवा परमात्मतत्त्वमें अपनी स्थितिका नाम नित्ययोग है । इस नित्ययोगकी प्राप्तिके लिये ही सब साधन हैं । यह नित्ययोग ही गीताका योग है, जिसकी परिभाषा भगवान्‌ने दो प्रकारसे की है‒(१) समताका नाम योग है‒‘समत्वं योग उच्यते’ (२/४८) और (२) दुःखस्वरूप संसारके संयोगके वियोगका नाम योग है‒‘तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्’ (६/२३) । चाहे समता कह दो, चाहे संसारके संयोगका वियोग कह दो, दोनों एक ही हैं । तात्पर्य है कि समतामें स्थिति होनेपर संसारके संयोगका वियोग हो जायगा और संसारके संयोगका वियोग होनेपर समतामें स्थिति हो जायगी । दोनोंमेंसे कोई एक होनेपर नित्ययोगकी प्राप्ति हो जायगी । इसको शास्त्रोंमें मूलाविद्यासहित जगत्‌की निवृत्ति और परमानन्दकी प्राप्ति कहा गया है । गीताने मूलाविद्यासहित जगत्‌की निवृत्तिको कहा है‒‘तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्’ और परमानन्दकी प्राप्तिको कहा है‒‘समत्वं योग उच्यते’ । मूलाविद्यासहित जगत्‌की निवृत्तिका नाम भी योग है और परमानन्दकी प्राप्तिका नाम भी योग है । इस योगकी प्राप्तिमें संयोगकी रुचि और क्रियाकी रुचि ही खास बाधक है । पदार्थ अच्छे लगते हैं, करना अच्छा लगता है‒यही खास बाधा है । पदार्थ और क्रिया प्रकृतिका स्वरूप है । अगर पदार्थों और क्रियाओंका आकर्षण न रहे तो अपने अक्रिय स्वरूपका स्वतः अनुभव हो जायगा*मूलमें पदार्थोंके संयोगकी रुचि ही बाधक है; क्योंकि संयोगकी रुचि होनेसे क्रियाकी रुचि होती है । क्रियाकी रुचिसे कर्तृत्वाभिमान आता है और कर्तृत्वाभिमानसे देहाभिमान दृढ़ होता है । अगर संयोगकी रुचि न रहे तो क्रियाकी रुचि नहीं होगी; क्योंकि किसी-न-किसी प्रयोजनकी सिद्धिके लिये ही क्रिया की जाती है ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सहज साधना’ पुस्तकसे
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*यदा  हि  नेन्द्रियार्थेषु  न  कर्मस्वनुषज्जते ।
 सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥
         ‘जिस समय न इन्द्रियोंके भोगोंमें तथा न कर्मोंमें ही आसक्त होता है, उस समय वह सम्पूर्ण संकल्पोंका त्यागी मनुष्य योगारूढ़ कहा जाता है ।