।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
नित्ययोग तथा उसका अनुभव

(गत ब्लॉगसे आगेका)
संयोगकी रुचि कैसे नष्ट हो ? इसके तीन उपाय हैं‒ कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग* । कर्मयोगमें‒जो भी क्रिया करें, दूसरोंके हितके लिये ही करें, अपने लिये नहीं । स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीरकी सब क्रियाएँ दूसरोंके हितके लिये करनेसे अपनेमें क्रिया और पदार्थकी रुचि नष्ट हो जायगी । ज्ञानयोगमें‒सब क्रियाएँ प्रकृति और उसके कार्यमें हो रही हैं, अपने स्वरूपमें कोई क्रिया नहीं हो रही है‒इस विवेकको महत्त्व दें तो यह रुचि नष्ट हो जायगी । भक्तियोगमें‒सब क्रियाएँ भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये ही करें तो यह रुचि नष्ट हो जायगी । इस तरह क्रियाओंको चाहे संसारके लिये करो, चाहे प्रकृतिमें होनेवाली मान लो, चाहे भगवान्‌के लिये करो । क्रियाओंके साथ अपना कोई सम्बन्ध मत मानो; क्योंकि सम्बन्ध माननेसे ही अपनेमें कर्तृत्व और भोक्तृत्व आता है । क्रियाओंके साथ अपना सम्बन्ध न माननेसे करने और पानेकी रुचि मिट जायगी और नित्ययोगकी प्राप्ति हो जायगी ।

         हमारेको भोग मिल जायँ, पदार्थ मिल जायँ, रुपये मिल जायँ‒इस तरह संसारकी रुचि तो रहती है, पर संयोग नहीं रहता । कारण कि संसारका नित्य वियोग है । जिसका नित्य वियोग है, उसका संयोग कैसे रहेगा ? संसारमात्रका निरन्तर अपने स्वरूपसे स्वतः वियोग हो रहा है । पहले भी वियोग था, पीछे भी वियोग रहेगा और वर्तमानमें संयोगके समय भी निरन्तर वियोग हो रहा है । तात्पर्य है कि संसारका वियोग ही सत्य है । वियोग होनेपर फिर संयोग हो जाय‒इसका तो पता नहीं है, पर जिसका संयोग हुआ है, उसका वियोग अवश्य होगा; क्योंकि संसारका संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है ।

    संसारके संयोगमें दुःख-ही-दुःख है । इसलिये भगवान्‌ने संसारको दुःखरूप कहा है‒‘दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्’ (६/२३); ‘दुःखालयम्’ (८/१५) । कारण कि प्रत्येक संयोगका वियोग होता ही है, और वियोगमें दुःख होता है‒यह सबका अनुभव है । अगर हम संयोगकी इच्छा छोड़ दें तो उसका वियोग होनेसे दुःख नहीं होगा । संयोगकी इच्छा ही दुःखोंका घर है । संयोगकी इच्छा क्यों होती है ? कि हम संयोगजन्य सुख भोगते हैं तो अन्तःकरणमें उसके संस्कार पड़ जाते हैं, जिसको वासना कहते हैं । फिर जब भोग सामने आते हैं, तब वह वासना जाग्रत्‌ हो जाती है, जिससे संयोगकी रुचि पैदा होती है । संयोगकी रुचिसे इच्छा पैदा हो जाती है । इसलिये भगवान्‌ने कहा है कि संयोगजन्य जितने भी सुख हैं, वे सब आदि-अन्तवाले और दुःखोंके कारण हैं अर्थात्‌ उनसे दुःख-ही-दुःख पैदा होते हैं । इसलिये विवेकी मनुष्य उनमें रमण नहीं करता । कारण कि संयोगजन्य सुखका वियोग होगा ही । अगर उनमें रमण करनेकी इच्छा करेंगे तो वह दुःख ही देगा ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘सहज साधना’ पुस्तकसे
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                                       * योगास्त्रयो मया  प्रोक्ता   नृणां   श्रेयोविधित्सया ।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥
                                                                                                    (श्रीमद्भा ११/२०/६)
              ‘अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंके लिये मैंने तीन योगमार्ग बताये हैं‒ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग । इन तीनोंके सिवाय दूसरा कोई कल्याणका मार्ग नहीं है ।’
            एक क्रिया होती है, एक कर्म होता है और एक कर्मयोग होता है । शरीर बालकसे जवान तथा जवानसे बूढा होता है‒यह क्रिया है । क्रियासे न पाप होता है, न पुण्य होता है; न बन्धन होता है, न मुक्ति होती है । जैसे’ गंगाजीका बहना क्रिया है । अतः कोई डूबकर मर जाय अथवा खेती आदि कोई परोपकार हो जाय तो गंगाजीको पाप-पुण्य नहीं लगता । जब मनुष्य क्रियासे सम्बन्ध जोड़कर कर्ता बन जाता है, तब वह क्रिया फलजनक कर्म बन जाती है । कर्मसे बन्धन होता है । कर्मबन्धनसे छूटनेके लिये जब मनुष्य निःस्वार्थभावसे केवल दूसरोंके हितके लिये ही कर्म करता है, तब वह कर्मयोग हो जाता है ।कर्मयोगसे बन्धन मिटता है और मुक्ति होती है‒‘यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते’ (गीता ४/२३); ‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’ (गीता ३/९)  

             ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
                                                                  आद्यन्तवन्तः कौन्तेय  तेषु रमते बुधः ॥