।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल नवमी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
नित्ययोग तथा उसका अनुभव
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
सम्पूर्ण प्राकृत पदार्थों और क्रियाओंका निरन्तर हमारे स्वरूपसे वियोग हो रहा है । यह वियोग करना नहीं पड़ता, प्रत्युत स्वतः-स्वाभाविक तथा सहज ही वियोग होता है । इस वियोगको हम स्वीकार कर लें तो संयोगकी इच्छा मिट जायगी । संयोगकी इच्छा मिटते ही योगकी प्राप्ति स्वतः हो जायगी । उसकी प्राप्तिके लिये कुछ करना नहीं पड़ेगा । कारण कि वास्तवमें योग स्वतः-स्वाभाविक प्राप्त है । शरीरकी जाग्रत्‌, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि-अवस्थामें तथा संसारकी सर्ग, प्रलय, महासर्ग और महाप्रलय-अवस्थामें भी योग ज्यों-का-त्यों है । सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिमें ज्यों-का-त्यों रहनेसे इसको ‘नित्ययोग’ कहते हैं ।

         जिसका निरन्तर वियोग हो रहा है, उसके संयोगकी इच्छा छोड़ दो तो योगकी प्राप्ति हो जायगी अथवा एक ‘है’-रूप परमात्मतत्त्वमें स्थित हो जाओ तो योगकी प्राप्ति हो जायगी और संसारका स्वतः वियोग हो जायगा । दोनोंमेंसे किसी एकको कर लो तो दोनों अपने-आप हो जायँगे । इसमें एक मार्मिक बात है कि अलग उसीसे होना है, जो पहलेसे ही अलग है तथा अलग हो रहा है और प्राप्ति उसीकी करनी है, जो पहलेसे ही प्राप्त है । हमें संसारसे अलग होना है तो संसार सदा ही हमारेसे अलग है और परमात्माको प्राप्त करना है तो परमात्मा सबको सदा प्राप्त हैं । तात्पर्य है कि संसारका वियोग और परमात्माका नित्ययोग क्रियासाध्य नहीं है, प्रत्युत ये दोनों सहज तथा स्वाभाविक हैं । आवश्यकता केवल माने हुए संयोगकी रुचि मिटानेकी है । चाहे माने हुए संयोगकी रुचि मिटा दो, चाहे परमात्माके साथ अपने नित्ययोगको पहचान लो, जो पहले भी था, पीछे ही रहेगा और अब भी ज्यों-का-त्यों है ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘सहज साधना’ पुस्तकसे

         साधक जब अपने दोषोंको दोषरूपसे देखकर उनके दुःखसे दुःखी हो जाता है, उनका रहना उसे असह्य हो जाता है, तो फिर उसके दोष ठहर नहीं सकते । भगवान्‌की कृपा उन दोषोंका शीघ्र नाश कर देती है ।
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         नेत्रोंसे ज्यादा याद मनको रहती है, मनसे ज्यादा याद बुद्धिको रहती है और बुद्धिसे ज्यादा याद स्वयंको रहती है । स्वयं जिस बातको पकड़ लेता है, वह बात हरदम याद रहती है ।
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अपने-अपने स्थान या क्षेत्रमें जो पुरुष मुख्य कहलाते हैं, उन अध्यापक, व्याख्यानदाता, आचार्य, गुरु, नेता, शासक, महन्त, कथावाचक, पुजारी आदि सभीको अपने आचरणोंमें विशेष सावधानी रखनेकी अत्यधिक आवश्यकता है, जिससे दूसरे लोगोंपर उनका अच्छा प्रभाव पड़े ।
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करना चाहते हो तो सेवा करो, जानना चाहते हो तो अपने-आपको जानो और मानना चाहते हो तो प्रभुको मानो । तीनोंका परिणाम एक ही होगा ।
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जैसे कलम बढ़िया होनेसे लिखाई तो बढ़िया हो सकती है, पर उससे लेखक बढ़िया नहीं हो जाता, ऐसे ही करण (अन्तःकरण) शुद्ध होनेसे क्रिया तो शुद्ध हो सकती है, पर उससे कर्ता शुद्ध नहीं हो जाता ।
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लोग हमें जितना अच्छा समझते हैं, उतने अच्छे हम नहीं होते और लोग हमें जितना बुरा समझते हैं, उससे हम अधिक बुरे होते हैं‒इस वास्तविकताको समझकर ‘लोग हमें अच्छा समझें’‒इस इच्छाका त्याग कर देना चाहिये और अपनी दृष्टिमें अच्छे-से-अच्छे बननेकी चेष्टा करनी चाहिये ।
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‒ ‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे