(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
आगे चलकर
अठारहवें
अध्यायमें
भगवान्
बोले‒
यदहंकारमाश्रित्य
न योत्स्य
इति मन्यसे
।
मिथ्यैष
व्यवसायस्ते
प्रकृतिस्त्वां
नियोक्ष्यति
॥
(गीता १८/५९)
‘अहंकारका
आश्रय लेकर
तू जो ऐसा मान
रहा है कि मैं
युद्ध नहीं
करूँगा, तेरा
यह निश्चय
मिथ्या (झूठा)
है; क्योंकि
तेरी
क्षात्र-प्रकृति
तेरेको
युद्धमें
लगा देगी ।’
भगवान्के
कथनका
तात्पर्य है
कि ‘मैं युद्ध
नहीं करूँगा’‒यह
वास्तवमें
अहंकारकी
शरण होना है,
मेरी शरण होना
नहीं । अगर
मेरी
शरणागति
होती तो ‘मैं
ऐसा करूँगा,
ऐसा नहीं
करूँगा’‒यह
हो ही नहीं
सकता । अहंकार
शरणागतिमें
महान् बाधक
है । वर्ण,
आश्रम, जाति,
विद्या, कुल,
योग्यता, पद
आदिको लेकर
‘मैं भी कुछ
हूँ’‒ऐसा
अभिमान शरण
नहीं होने
देता । अतः
भगवान्ने
अर्जुनसे
कहा कि जैसी
तेरी मरजी
आये, वैसा कर‒‘यथेच्छसि
तथा कुरु’
(गीता १८/६३) ।
यह सुनकर
अर्जुन घबरा
गये कि
भगवान् तो
मेरा त्याग
कर रहे हैं ! यह
देखकर
भगवान्
बोले कि तू
मेरा
अत्यन्त
प्रिय है,
इसलिये मैं
तेरे हितके
लिये
सर्वगुह्यतम
(सबसे अत्यन्त
गोपनीय) बात
कहता हूँ
*
।
गीतामें ‘सर्वगुह्यतमम्’ शब्द एक ही
बार यहाँ
(१८/६४) में आया
है । इसले बाद
भगवान्ने
दो श्लोक कहे‒
मन्मना भव मद्भक्तो
मद्याजी मां
नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि
सत्यं
ते प्रतिजाने
प्रियोऽसि
मे ॥
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा
सर्वपापेभ्यो
मोक्षयिष्यामि
मा शुचः ॥
(गीता
१८/६५-६६)
‘तू
मेरा भक्त हो
जा, मेरेमें
मनवाला हो जा,
मेरा पूजन
करनेवाला हो
जा और मेरेको
नमस्कार कर ।
ऐसा करनेसे
तू मेरेको ही
प्राप्त हो
जायगा‒यह
मैं तेरे
सामने सत्य
प्रतिज्ञा
करता हूँ; क्योंकि
तू मेरा अत्यन्त
प्रिय है ।’
‘सम्पूर्ण
धर्मोंका
आश्रय छोड़कर
तू केवल मेरी
शरणमें आ जा ।
मैं तुझे
सम्पूर्ण
पापोंसे
मुक्त कर
दूँगा, चिन्ता
मत कर ।’
इन दो
श्लोकोंके
बाद भगवान्ने
कहा कि यह
सर्वगुह्यतम
वचन उस
व्यक्तिसे मत
कहना, जो
अतपस्वी है,
अभक्त है, इस
रहस्यको सुनना
नहीं चाहता
और मेरेमें
दोषदृष्टि
करता है
[†]
। इससे
ऐसा मालूम
देता है कि
भगवान्ने
दोनों तरफसे
(चौसठवें एवं
सड़सठवें
श्लोकमें)
निषेध करके
मानो
डिबियाके
बीचमें दो
सर्वगुह्यतम
श्लोक-रत्न
रखे हैं । इन
दोनोंमें भी
शरणागतिका
मुख्य श्लोक
अन्तिम (१८/६६)
है ।
रामायणमें
भी जब
सुग्रीवने
भगवान्से
कहा‒
सब
प्रकार
करिहउँ सेवकाई
।
जेहि
बिधि मिलिहि
जानकी आई ॥
(मानस,
किष्किन्धा॰ ५/४)
तब भगवान्ने
कहा‒
सखा सोच
त्यागहु बल
मोरें ।
सब बिधि
घटब काज मैं
तोरें ॥
(मानस,
किष्किन्धा॰ ७/५)
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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*
सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि
मे दृढमिति
ततो
वक्ष्यामि ते
हितम् ॥
(गीता १८/६४)
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