।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल दशमी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
एकादशी-व्रत कल है
गीताकी शरणागति
 

       गीतामें भगवान्‌ने अपनी प्राप्तिके अनेक साधन बताये हैं । जिससे मनुष्यका कल्याण हो जाय, ऐसी कोई भी युक्ति, उपाय भगवान्‌ने बाकी नहीं रखा है । अनन्त मुखोंसे कही जानेवाली बातको भगवान्‌ने एक मुखसे कह दिया है ! इसलिये गीताके टीकाकार श्रीधर स्वामी लिखते हैं‒
शेषाशेषमुखव्याख्याचातुर्यं त्वेकवक्त्रतः ।
दधानमद्भुतं  वन्दे    परमानन्दमाधवम् ॥

        ‘शेषनागके द्वारा अपने अशेष मुखोंसे की जानेवाली व्याख्याके चातुर्यको जो एक मुखसे ही धारण करते हैं, उन अद्भुत परमानन्दस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्णकी मैं वन्दना करता हूँ ।’

        गीता ज्ञानका एक अथाह समुद्र है । इसका अध्ययन करनेपर नये-नये भाव मिलते हैं और मिलते ही चले जाते हैं । हाँ, अगर कोई विद्वत्ताके जोरपर गीताका अर्थ समझना चाहे तो नहीं समझ सकेगा । अगर गीता और गीतावक्ताकी शरण लेकर उसका अध्ययन किया जाय तो गीताका तात्त्विक अर्थ स्वतः समझमें आने लगता है ।

        गीता एक प्रासादिक ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ अपनी शरण लेनेवालेपर खुद कृपा करता है और कृपा करके उसके सामने प्रकट होता है । मैंने ऐसे मनुष्योंको देखा है, जिनको संस्कृतका बोध नहीं है, पर वे गीताका अर्थ करते हैं ! भाषाका बोध न होनेपर भी गीताका सिद्धान्त, भाव उनके मनमें आ जाता है । आजसे साठ-पैंसठ वर्ष पहलेकी बात है । कलकत्तेमें एक मुनीम थे । उनको शुद्ध हिन्दी लिखनी नहीं आती थी । एक दिन उन्होंने कहा कि मैं गीता कण्ठस्थ करना चाहता हूँ; परन्तु इसके लिये किसी पण्डितको रखूँ तो मेरी इतनी सामर्थ्य नहीं है कि उसको तनखाह दे सकूँ । मैंने कहा कि तुम भगवान्‌को नमस्कार करके, उनकी शरण होकर गीता पढ़नी शुरू कर दो । उन्होंने घर जाकर भगवान्‌का चित्र सामने रख दिया, धूप-बत्ती कर दी, पुष्प चढ़ा दिये और ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्’ कहकर गीता पढ़ने लग गये । कुछ समयमें उनको गीता याद हो गयी । मैंने उनसे गीताके अठ्ठारह अध्याय ठीक संख्यासहित सुने । अशुद्धियाँ बहुत कम थीं ।

        विद्वत्ताके अभिमानसे गीता याद नहीं होती‒ये उदाहरण भी मेरे सामने आये हैं । एक अच्छे पण्डित थे, जो रामायणके मर्मज्ञ थे । गीता-जयन्तीके अवसरपर मैंने गीताकी कुछ बातें कहीं तो उनका गीतामें आकर्षण हुआ । उन्होंने कहा कि मैं किसीसे कोई श्लोक सुन लेता हूँ तो वह मुझे कण्ठस्थ हो जाता है; अतः मैं गीताका अर्थ जानना चाहता हूँ । मैंने कहा कि आप गीताका एक बारहवाँ अध्याय याद करके मेरे पास आयें तो मैं उसका अर्थ आपको अच्छी तरहसे सुना दूँगा । कुछ दिनोंके बाद वे मेरेसे मिले और कहा कि मैं गीताको याद करनेके लिये बहुत परिश्रम करता हूँ, पर मेरेको गीता याद नहीं होती ! इसका कारण मैंने यही समझा कि उनके मनमें अभिमान था कि मैं इतना जानकार हूँ, मेरेको बहुत जल्दी श्लोक याद हो जाते हैं ! यह अभिमान पारमार्थिक मार्गमें बड़ा भारी बाधक है । जो निरभिमान होकर सरलतापूर्वक गीताकी शरणमें जाता है, उसको गीताके भाव समझमें आ जाते हैं । मैंने देखा है कि जिन्होंने भगवान्‌की शरण ले ली हैं, उनके अनुभवमें ऐसी-ऐसी विचित्र बातें आ जाती हैं, जो शास्त्रोंमें भी कहीं-कहीं मिलती हैं । इसलिये गीतामें शरणागतिकी बात मुख्यरूपसे आयी है ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे