।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण दशमी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
एकादशी-व्रत कल है
सत्स्वरूपका अनुभव

(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒महाराजजी, अन्तःकरणमें राग-द्वेष रहते हुए ही क्रियाएँ होती हैं !

स्वामीजी‒बिलकुल क्रियाएँ होती हैं राग-द्वेष रहते हुए, परन्तु आपका कभी अभाव होता है क्या ? कितना ही राग-द्वेष हो जाय, कितना ही हर्ष-शोक हो जाय, आपमें कुछ फर्क पड़ता है क्या ?

श्रोता‒फर्क न पड़नेपर भी साधकमें घबराहट रहती है कि राग-द्वेष तो हो रहे हैं !

स्वामीजी‒आप राग-द्वेषको पकड़ लेते हो, बहते हुए को पकड़ लेते हो, तब घबराहट होती है । राग रहता नहीं, द्वेष रहता नहीं, वैर रहता नहीं, सुख रहता नहीं, दुःख रहता नहीं; जो रहता नहीं, उसको पकड़ लेते हो । आप उसको पकड़ो मत । आप तो वैसे-के-वैसे रहते हो । अगर वैसे नहीं रहते तो सुख-दुःखको, राग और द्वेषको आप अलग-अलग कैसे जानते हो । रागके समय रहते हो, वही द्वेषके समय रहते हो; द्वेषके समय रहते हो, वही रागके समय रहते हो, तब दोनोंका अनुभव होता है । जिसको दोनोंका अनुभव होता है, उसमें दोनों कहाँ हैं ?

यह एक वहम है कि अन्तःकरण शुद्ध होनेसे कर्ता शुद्ध हो जायगा । सभी कारक क्रियाके होते हैं । कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण‒ये सब क्रियाके हैं, प्रकृतिके हैं । यह प्रकृति जिससे प्रकाशित होती है, वह ज्यों-का-त्यों रहता है । अतः आप राग-द्वेषसे डरो मत । ये तो मिटनेवाले हैं, आने-जानेवाले हैं । असत्‌ तो मिट रहा है । किसीकी ताकत नहीं कि असत्‌को स्थिर रख सके और सत्‌का विनाश कर सके । असत्‌ तो टिक नहीं सकता और सत्‌ मिट नहीं सकता । असत्‌में किसीकी स्थिति हुई नहीं, होगी नहीं और हो सकती नहीं; एवं सत्‌से अलग कोई हुआ नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं ।

श्रोता‒असत्‌में स्थित होकर ही तो भोक्ता बनता है !

स्वामीजी‒बिलकुल, इसमें कहना ही क्या है ! वह असत्‌में स्थिति मान लेता है, स्थित होता नहीं । अगर आपकी स्थिति सत्‌में है तो फिर असत्‌में स्थिति कैसे हुई ? अगर असत्‌में स्थिति है तो फिर सत्‌में स्थिति कैसे हुई ? रागमें आपकी स्थिति है तो द्वेष कैसे होगा ? और द्वेषमें आपकी स्थिति है तो राग कैसे हुआ ? राग और द्वेष तो संसारके हैं, उसमें आप लिप्त हो जाते हो । आपमें न राग है, न द्वेष है, न हर्ष है, न शोक है । बड़ी सीधी-सरल बात है । इसमें कठिनताका नामोनिशान ही नहीं है !

श्रोता‒फिर गडबड़ी कहाँ है ?

स्वामीजी‒असत्‌को आप छोड़ना नहीं चाहते‒यहाँ ही गडबड़ी है ! संयोगजन्य सुख आपने मान रखा है, यहाँ गडबड़ी है ।

श्रोता‒असत्‌का त्याग कैसे हो ?

स्वामीजी‒अरे ! असत्‌को आप पकड़ सकते ही नहीं । किसीकी ताकत नहीं कि असत्‌को पकड़ ले । असत्‌का त्याग करना है, त्याग तो अपने-आप हो रहा है !

सुख और दुःख, राग और द्वेष‒दोनोंका जिसको अनुभव होता है, उसमें न सुख है, न दुःख है, न राग है, न द्वेष है, न हर्ष है, न शोक है । जो इन सबसे रहित है, वह आपका स्वरूप है । जिसमें राग-द्वेष आदि होते हैं, वह आपका स्वरूप नहीं है । सीधी बात है !

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे