।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, रविवार
गीताकी शरणागति
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
     अर्जुनने भगवान्‌से कहा कि धर्मका निर्णय करनेमें मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है‒‘धर्मसम्मूढचेताः’; अतः मैं आपकी शरण हूँ, तो भगवान्‌ने कहा कि तुझे धर्मका निर्णय करनेकी जरूरत ही नहीं है‒‘सर्वधर्मान् परित्यज्य’ । जिनके भीतर कामना है, वे धर्मका आश्रय लेनेवाले बार-बार जन्मते और मरते रहते हैं‒‘एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते’ (गीता ९/२१) । अतः धर्मका आश्रय न लेकर अनन्यभावसे एक मेरी शरण ले‒‘मामेकं शरणं व्रज’

       अर्जुन कहता है कि मैं युद्ध करूँगा तो पाप लगेगा* और भगवान्‌ कहते हैं कि तू युद्ध नहीं करेगा तो पाप लगेगा । परन्तु अन्तमें भगवान्‌ अत्यन्त कृपा करके कहते हैं कि तू पापसे मत डर, तू मेरी शरणमें आ जा तो मैं तेरेको सब पापोंसे मुक्त कर दूँगा । इसके साथ ही भगवान् आश्वासन भी देते हैं कि तू चिन्ता मत कर ।

         सम्पूर्ण पाप और दुःख भगवान्‌से विमुख होनेसे ही होते हैं । भगवान्‌से विमुख होना सबसे बड़ा पाप है और सम्मुख होना सबसे बड़ा पुण्य है । इसलिये भगवान्‌ने कहा है‒
सनमुख होई जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥
                                        (मानस, सुन्दर ४४/१)

       भगवान्‌के सम्मुख होनेसे पापों और दुःखोंका मूल नष्ट हो जाता है । सन्तोंने कहा है कि भगवान्‌के सम्मुख होना पूरा पुण्य है और सद््गुण-सदाचारमें लगना आधा पुण्य है । इसी तरह भगवान्‌से विमुख होना पूरा पाप है और दुर्गुण-दुराचारोंमें लगना आधा पाप है । जीव भगवान्‌का अंश है और अंशीसे विमुख होनेसे ही वह दुःख पाता है । जब वह भगवान्‌की शरण हो जाता है, तब सब पाप-ताप मिट जाते हैं ।

         साधकको चाहिये कि वह सरल हृदयसे ऐसा कह दे कि ‘हे नाथ ! मैं आपका हूँ’ अब मान ले कि मैं भगवान्‌की शरण हो गया और भगवान्‌ने मेरेको स्वीकार कर लिया । वास्तवमें भगवान्‌ किसीका भी त्याग करते नहीं, किया नहीं और करेंगे नहीं । सर्वसमर्थ भगवान्‌में किसीका त्याग करनेकी सामर्थ्य ही नहीं है । उन्होंने सबको अपनी शरणमें ले रखा है । हम ही उनसे विमुख होकर संसारके सम्मुख हो गये, संसारकी शरण हो गये । अतः भगवान्‌ कहते हैं कि सब धर्मोका आश्रय छोड़कर एक मेरी शरण हो जाओ तो मैं तुम्हे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत करो । तात्पर्य है कि धर्मका अनुष्ठान करो, पर धर्मका अनुष्ठान करके मैं अपना कल्याण कर लूँगा‒यह आश्रय मत रखो । नाम, जप, कीर्तन, प्रार्थना, गीता-रामायणका पाठ, शास्त्रोंका अध्ययन आदि सब करो, पर इनसे मैं अपना कल्याण कर लूँगा‒ऐसा अभिमान मत रखो । अपने उद्योगसे कोई अनन्त पापोंका नाश नहीं कर सकता; क्योंकि यह ताकत जीवमें नहीं है, प्रत्युत भगवान्‌में ही है । इसलिये भगवान्‌ कहते हैं‒‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः’ अर्थात्‌ सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त मैं करूँगा, तुम चिन्ता क्यों करते हो !

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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* पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ॥ (गीता १/३६)
   अहो बात महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् । (गीता १/४५)
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं    संग्रामं  करिष्यसि ।
   ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥ (गीता २/३३)