।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ पूर्णिमा, वि.सं.–२०७०, सोमवार
गुरुपूर्णिमा, श्रीव्यासपूजा
गीताकी शरणागति
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
जो जाको शरणो गहै,     ताकहँ ताकी लाज ।
उलटे जल मछली चलै, बह्यो जात गजराज ॥

         नदीके तेज प्रवाहमें यदि बलवान् हाथी भी आ जाय तो वह टिक नहीं सकता, लुढ़क जाता है । परन्तु छोटी-सी मछली उस तह प्रवाहमें भी बड़े आरामसे घूमती है । इतना ही नहीं, मैंने देखा है कि अगर ऊपरसे जलकी धारा तीव्रगतिसे नीचे गिर रही हो तो उस धारामें भी छोटी-छोटी मछलियाँ ऊँचे चढ़ जाती हैं । इसका कारण यह है कि हाथीने तो जंगलकी शरण ले रखी है, पर मछलीने जलकी शरण ले रखी है । जलके सिवाय और जगह वह व्याकुल हो जाती है, जलके वियोगमें मर जाती है । अगर जल मछलीको बहा दे तो बेचारी मछली कहाँ जायगी ? किसकी शरण लेगी ? इसी तरह अगर हम भगवान्‌की शरण ले लें तो फिर कोई भी शक्ति हमें रोक नहीं सकती । इसलिये भगवान्‌ कहते हैं कि तू चिन्ता मत कर‒‘मा शुचः’हमने भगवान्‌की शरण ले ली, फिर अपने उद्धारकी चिन्ता हम करें‒यह बड़े आश्चर्यकी और मूर्खताकी, बेसमझीकी बात है !

        जबतक साधकमें अपने बल, बुद्धि, योग्यता आदिका आश्रय रहता है, ‘मैं कर सकता हूँ’‒यह अभिमान रहता है, तबतक शरणागति नहीं होती । जब अपने बलका आश्रय नहीं रहता, तब बड़ी सुगमतासे शरणागति होती है । इसलिये कहा है‒
जब लगि गज बल अपने बरत्यो, नेक सर्‌यो नहिं काम ।
निर्बल ह्वै बल राम पुकार्‌यो,            आये आधे नाम ॥
सुने री मैंने निरबल के बल राम ।

       इसलिये साधकको अपना बल, बुद्धि, योग्यता आदि सब लगाना चाहिये । सब बल लगानेपर भी जब कार्य सिद्ध नहीं होता, तब अपने बलका अभिमान दूर हो जाता है । जबतक वह अपना पूरा बल लगाकर भजन नहीं करता, तबतक उसके भीतर अपने बलका अभिमान रहता है । जबतक अपने बलका अभिमान रहता है, तबतक शरणागति सिद्ध नहीं होती ।

          भगवान्‌ अर्जुनसे कहते हैं‒‘निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’ (गीता ११/३३) ‘हे सव्यसाची ! तुम निमित्तमात्र बन जाओ ।’ अर्जुनको ‘सव्यसाची’ इसलिये कहा कि वे दोनों हाथोंसे बाण चलाते थे । वे दायें हाथसे जैसा निशाना मारते थे, वैसा-का-वैसा निशाना बायें हाथसे भी मारते थे । वे आगे-पीछे, दायें-बायें चारों तरफ बराबर भाग सकते थे और भागते हुए बाण चला सकते थे । भगवान्‌ ‘सव्यसाची’ सम्बोधन देकर मानो यह कहते हैं कि तुम अपने उद्योगमें कमी मत रखो, पूरा उद्योग करो, पर भरोसा उद्योगका मत रखो ।

        जब भगवान्‌ने इन्द्रकी पूजा बन्द करवाकर गिरिराज गोवर्धनकी पूजा करवा दी, तब इन्द्रने कोप करके व्रजपर भयंकर वर्षा कर दी । भगवान्‌ने गिरिराजको बायें हाथकी छोटी अंगुलीके नखपर उठा लिया और ग्वालबालोंसे कहा कि सब-के-सब पर्वतपर अपनी-अपनी लाठियाँ लगाओ । सबने पूरी शक्तिसे अपनी लाठियाँ लगा दीं । ग्वालबालोंके मनमें आया कि हम सबने लाठियाँ लगायी हैं, तभी पर्वत उठा है । लालाकी एक अंगुलीसे पर्वत थोड़ा ही उठा है ! उनके मनमें ऐसा आते ही भगवान्‌ने उनका अभिमान दूर करनेके लिये अपनी अंगुली थोड़ी-सी नीचे की तो ग्वालबाल चिल्लाने लगे‒अरे दादा ! मरे, मरे, मरे ! भगवान्‌ने कहा कि उठाओ, लगाओ जोर ! पर लाठीके जोरसे पर्वत थोड़े ही उठ सकता है ! तात्पर्य है कि साधक अपना बल तो पूरा लगाये, पर उद्योगसे मेरा उद्धार हो जायगा‒इस तरह उद्योगका आश्रय न लेकर भगवान्‌का ही आश्रय रखे कि उद्धार तो भगवान्‌की कृपासे ही होगा । भगवान्‌की कृपाका भरोसा रखना शरणागति है । इसलिये भगवान्‌ कहते हैं कि तू मेरी शरणमें आ जा, मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, उसकी चिन्ता तू मत कर ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे