(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
जो जाको
शरणो गहै, ताकहँ
ताकी लाज ।
उलटे जल
मछली चलै,
बह्यो जात
गजराज ॥
नदीके
तेज
प्रवाहमें
यदि बलवान्
हाथी भी आ जाय
तो वह टिक
नहीं सकता,
लुढ़क जाता है ।
परन्तु
छोटी-सी मछली
उस तह
प्रवाहमें
भी बड़े आरामसे
घूमती है ।
इतना ही नहीं,
मैंने देखा
है कि अगर
ऊपरसे जलकी
धारा
तीव्रगतिसे
नीचे गिर रही
हो तो उस धारामें
भी छोटी-छोटी
मछलियाँ ऊँचे
चढ़ जाती हैं ।
इसका कारण यह
है कि हाथीने
तो जंगलकी
शरण ले रखी है,
पर मछलीने
जलकी शरण ले
रखी है । जलके
सिवाय और जगह
वह व्याकुल
हो जाती है,
जलके
वियोगमें मर
जाती है । अगर
जल मछलीको
बहा दे तो
बेचारी मछली
कहाँ जायगी ?
किसकी शरण
लेगी ? इसी तरह अगर हम
भगवान्की
शरण ले लें तो
फिर कोई भी
शक्ति हमें
रोक नहीं
सकती । इसलिये
भगवान्
कहते हैं कि
तू चिन्ता मत
कर‒‘मा
शुचः’ । हमने
भगवान्की
शरण ले ली, फिर
अपने
उद्धारकी
चिन्ता हम करें‒यह
बड़े
आश्चर्यकी
और
मूर्खताकी,
बेसमझीकी बात
है !
जबतक
साधकमें
अपने बल,
बुद्धि,
योग्यता
आदिका आश्रय
रहता है, ‘मैं
कर सकता हूँ’‒यह
अभिमान रहता
है, तबतक
शरणागति
नहीं होती । जब अपने बलका
आश्रय नहीं
रहता, तब बड़ी
सुगमतासे
शरणागति
होती है ।
इसलिये कहा
है‒
जब लगि गज
बल अपने
बरत्यो, नेक
सर्यो नहिं
काम ।
निर्बल ह्वै
बल
राम
पुकार्यो, आये आधे नाम ॥
सुने री
मैंने निरबल
के बल राम ।
इसलिये
साधकको अपना
बल, बुद्धि,
योग्यता आदि
सब लगाना
चाहिये । सब
बल लगानेपर
भी जब कार्य
सिद्ध नहीं
होता, तब अपने
बलका अभिमान
दूर हो जाता
है । जबतक
वह अपना पूरा
बल लगाकर भजन
नहीं करता, तबतक
उसके भीतर
अपने बलका
अभिमान रहता
है । जबतक
अपने बलका
अभिमान रहता
है, तबतक
शरणागति
सिद्ध नहीं
होती ।
भगवान्
अर्जुनसे
कहते हैं‒‘निमित्तमात्रं
भव
सव्यसाचिन्’
(गीता ११/३३) ‘हे सव्यसाची !
तुम
निमित्तमात्र
बन जाओ ।’
अर्जुनको ‘सव्यसाची’ इसलिये कहा
कि वे दोनों
हाथोंसे बाण
चलाते थे । वे
दायें हाथसे
जैसा निशाना
मारते थे,
वैसा-का-वैसा
निशाना
बायें हाथसे
भी मारते थे ।
वे आगे-पीछे,
दायें-बायें
चारों तरफ
बराबर भाग
सकते थे और
भागते हुए
बाण चला सकते
थे । भगवान् ‘सव्यसाची’ सम्बोधन
देकर मानो यह
कहते हैं कि तुम
अपने
उद्योगमें
कमी मत रखो,
पूरा उद्योग
करो, पर भरोसा
उद्योगका मत
रखो ।
जब
भगवान्ने
इन्द्रकी
पूजा बन्द
करवाकर
गिरिराज
गोवर्धनकी
पूजा करवा दी,
तब इन्द्रने
कोप करके व्रजपर
भयंकर वर्षा
कर दी ।
भगवान्ने
गिरिराजको
बायें हाथकी
छोटी
अंगुलीके नखपर
उठा लिया और
ग्वालबालोंसे
कहा कि
सब-के-सब
पर्वतपर
अपनी-अपनी
लाठियाँ
लगाओ । सबने
पूरी
शक्तिसे
अपनी
लाठियाँ लगा
दीं ।
ग्वालबालोंके
मनमें आया कि
हम सबने
लाठियाँ लगायी
हैं, तभी
पर्वत उठा है ।
लालाकी एक
अंगुलीसे
पर्वत थोड़ा
ही उठा है ! उनके
मनमें ऐसा
आते ही
भगवान्ने
उनका अभिमान
दूर करनेके
लिये अपनी
अंगुली
थोड़ी-सी नीचे
की तो
ग्वालबाल
चिल्लाने
लगे‒अरे
दादा ! मरे, मरे,
मरे ! भगवान्ने
कहा कि उठाओ,
लगाओ जोर ! पर
लाठीके
जोरसे पर्वत
थोड़े ही उठ
सकता है !
तात्पर्य है
कि साधक अपना
बल तो पूरा
लगाये, पर
उद्योगसे
मेरा उद्धार
हो जायगा‒इस
तरह
उद्योगका
आश्रय न लेकर
भगवान्का
ही आश्रय रखे
कि उद्धार तो
भगवान्की
कृपासे ही
होगा । भगवान्की
कृपाका
भरोसा रखना
शरणागति है । इसलिये
भगवान्
कहते हैं कि
तू मेरी
शरणमें आ जा,
मैं तुझे सम्पूर्ण
पापोंसे
मुक्त कर
दूँगा, उसकी
चिन्ता तू मत
कर ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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