।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
गीताकी शरणागति



(गत ब्लॉगसे आगेका)
परीक्षित्‌की माता उत्तराने भी भगवान्‌की शरण ली थी । द्रोणाचार्यके पुत्र अश्वत्थामाने विचार कर लिया था कि मैं पाण्डवोंका वंश नष्ट कर दूँगा । उसने सोते हुए द्रौपदीके पाँचों पुत्रोंको मार डाला । अब केवल उत्तराके गर्भमें एक बालक रह गया । उसको भी नष्ट करनेके लिये अश्वत्थामाने ब्रह्मास्त्र चलाया । जब उत्तराने उसको अपनी ओर आते देखा, तब उसने भगवान्‌को पुकारा‒
पाहि   पाहि    महायोगिन्देवदेव    जगत्पते ।
नान्यं त्वदभयं पश्ये      यत्र मृत्युः परस्परम् ॥
अभिद्रवति मामीश       शरस्तप्तायसो विभो ।
कामं दहतु मां नाथ मा मे गर्भो निपात्यताम् ॥
                                                    (श्रीमद्भा १/८/९-१०)

          ‘हे देवाधिदेव ! जगदीश्वर ! महायोगिन् ! आप मेरी रक्षा कीजिये ! रक्षा कीजिये ! आपके सिवाय इस लोकमें मुझे अभय देनेवाला दूसरा कोई नहीं है; क्योंकि यहाँ सभी आपसमें एक-दूसरेकी मृत्युका कारण बन रहे हैं । प्रभो ! सर्वशक्तिमान् ! यह दहकता हुआ लोहेका बाण मेरी तरफ दौड़ा आ रहा है । स्वामिन् ! यह मुझे भले ही जला डाले, पर मेरे गर्भको नष्ट न करे ।’

        उत्तराकी पुकार सुनते ही भगवान्‌ने चक्र धारण कर लिया और छोटा-सा रूप धारण करके गर्भस्थ शिशुके चारों और घूमने लगे । इससे ब्रह्मास्त्र गर्भस्थ शिशुका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सका और शान्त हो गया । परीक्षित कहते हैं‒
          द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टमिदं मदङ्गं
सन्तानबीजं कुरुपाण्डवानाम् ।
          जुगोप कुक्षिं गत आत्तचक्रो
मातुश्च मे यः शरणं गतायाः ॥
                                    (श्रीमद्भा १०/१/६)
       ‘महाराज ! मेरा यह शरीर, जो आपके सामने हैं तथा जो कौरव और पाण्डव दोनों ही वंशोंका एकमात्र सहारा था, अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे जल चुका था । उस समय मेरी माता जब भगवान्‌की शरणमें गयी, तब उन्होंने हाथमें चक्र लेकर मेरी माताके गर्भमें प्रवेश किया और मेरी रक्षा की ।’

       तात्पर्य है कि भगवान्‌की शरणमें जाना जीवका काम है और उसकी सब प्रकारसे रक्षा करना भगवान्‌का काम है । अगर मनुष्यमें थोड़ा भी शरणागतिका भाव आ जाय तो भगवान्‌ पिघल जाते हैं, उनसे रहा नहीं जाता और वे उसको स्वीकार कर ही लेते हैं । अगर कोई सच्चे हृदयसे एक बार भी कह दे कि ‘हे नाथ ! मैं आपका हूँ’ तो भगवान्‌ उसका उद्धार कर देते हैं । भगवान्‌ शरणागतका त्याग नहीं कर सकते । भगवान्‌ कहते हैं‒
ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम् ।
हित्वा मां शरणं याताः कथं तांस्त्यक्तुमुत्सहे ॥
                                                        (श्रीमद्भा ९/४/६५)
         ‘जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक‒सबको छोड़कर केवल मेरी शरणमें आ गये हैं, उन्हें छोड़नेका संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ ?’
कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू ।
आएँ सरन   तजउँ नहिं ताहू ॥
                               (मानस, सुन्दर ४४/१)

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तक