।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण द्वितीया, वि.सं.–२०७०, बुधवार
गीताकी शरणागति

(गत ब्लॉगसे आगेका)
          जो सच्चे हृदयसे भगवान्‌की शरण लेता है, उसका जीवन बदल जाता है‒ऐसा मैंने देखा है । कलकत्तेमें एक सज्जन मिले थे । वे कहते थे कि ‘मैं सत्संग करनेवालोंको फालतू समझा करता था कि ये व्यर्थ ही अपना समय बर्बाद करते हैं । एक बार मैं नवद्वीप गया । मैं वहाँके प्रसिद्ध ‘भजनाश्रम’ में ठहरा हुआ था । एक दिन वहाँ कुछ माताएँ कीर्तन कर रही थीं । मैं वहाँ बैठ गया । उस कीर्तनमें एक स्त्रीने उठकर भगवान्‌की शरणागतिकी बात कही और वाल्मीकिरामायणका यह श्लोक कहा‒
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते ।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ॥
                                               (६/१८/३३)
           ‘जो एक बार भी शरणमें आकर ‘मैं तुम्हारा हूँ’ ऐसा कहकर मेरेसे रक्षाकी आचना करता है, उसको मैं सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय कर देता हूँ’‒यह मेरा व्रत है ।’

          मैंने यह सुना तो विचार आया कि यह तो बड़ा सुगम साधन है ! मैं अपने कमरेमें आ गया और सब कपाट बन्द करके एकान्तमें सच्चे हृदयसे भगवान्‌से कहा कि कोई एक बार भी आपकी शरण हो जाय तो आप उसका उद्धार कर देते हो, सब पापोंसे मुक्त कर देते हो‒यह बात अगर सच्ची है तो हे नाथ ! मैं आपकी शरण हूँ ! ऐसा कहकर मैंने लम्बा पड़कर प्रणाम किया । फिर मैं वहाँसे कलकत्ते आ गया और अपने काममें लग गया । नवद्वीपवाली बात मेरेको याद ही नहीं रही । एक दिन मैंने सुना कि अमुक जगह सत्संग हो रहा है तो यों ही कौतूहलवशात् वहाँ चला गया । जानेपर मन लग गया तो सत्संग करने लग गया । धीरे-धीरे मेरा जीवन बदल गया । फिर एक दिन आश्चर्य आया कि मैं तो बड़ा तर्क-वितर्क करनेवाला था, फिर अपने-आप यह परिवर्तन कैसे हो गया ! तब याद आया कि ओहो ! मैंने नवद्वीपमें कहा था कि ‘हे नाथ ! मैं आपकी शरण हूँ’ उसीका यह परिणाम है !

        तात्पर्य है कि जब मनुष्य सच्चे हृदयसे भगवान्‌की शरण हो जाता है, तब भगवान्‌पर उसके उद्धारकी जिम्मेवारी आ जाती है । सच्चे हृदयसे ‘हे नाथ ! मैं आपका हूँ’ ऐसा स्वीकार करनेमात्रसे कल्याण हो जाता है; क्योंकि वास्तवमें सभी भगवान्‌के ही हैं । महाभारतमें आया है‒
एकोऽपि कृष्णस्य कृतः प्रणामो दशाश्वमेधावभृथेन तुल्यः ।
दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म        कृष्णप्रणामी पुनर्भवाय ॥
                                                            (महाभारत, शान्ति ४७/९२)
         ‘भगवान्‌ श्रीकृष्णको एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दस अश्वमेध यज्ञोंके अन्तमें किये गये स्नानके समान फल देनेवाला होता है । इसके सिवाय प्रणाममें एक विशेषता है कि दस अश्वमेध करनेवालेका तो पुनः संसारमें जन्म होता है, पर श्रीकृष्को प्रणाम करनेवाला अर्थात्‌ उनकी शरणमें जानेवाला फिर संसार-बन्धनमें नहीं आता ।’

          गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं‒
कूर कुटिल खल कुमति कलंकी ।
नीच निसील   निरीस निसंकी ॥
तेउ  सुनी  सरन   सामुहें  आए ।
सकृत  प्रनामु   किहें  अपनाए ॥
                                    (मानस, अयोध्या २९९/१-२)
सब स्वारथी असुर सुर नर मुनि, कोउ न देत बिनु पाये ।
कोसलपालु कृपालु कलपतरु,    द्रवत सकृत सिर नाये ॥
                                                            (विनयपत्रिका १६३/२)

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे