।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण तृतीया, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
गीताकी शरणागति
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्‌की स्तुति करते हुए ब्रह्माजी कहते हैं‒

                           हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्ति पदे स दायभाक् ।
                                                               (श्रीमद्भा १०/१४/८)
        ‘जो हृदय, वाणी तथा शरीरसे आपको नमस्कार करता रहता है, वह आपके परमपदका ठीक वैसे ही अधिकारी हो जाता है, जैसे पिताकी सम्पत्तिका पुत्र !’

नमस्कार से रामदास, करम सभी कट जाय ।
जाय मिले परब्रह्ममें,     आवागमन मिटाय ॥

           भगवान्‌को प्रणाम करना उनकी शरणगति है । प्रणाम करनेका तात्पर्य है‒‘मैं आपका हूँ; अतः आप जो भी विधान करें, मुझे स्वीकार है ।’ गीतामें भी कई जगह नमस्कार करनेकी बात आयी है; जैसे‒‘मां नमस्कुरु’ (९/३४, १८/६५), ‘नमस्यन्तश्च मां भक्त्या’ (९/१४), ‘सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्गाः’ (११/३६) आदि । हमारी संस्कृति ही शरणागति-प्रधान है । शिष्य गुरुको प्रणाम करता है, पुत्र माता-पिताको प्रणाम करता है, स्त्री पतिको प्रणाम करती है, नौकर मालिकको प्रणाम करता है, प्रजा राजाको प्रणाम करती है आदि । मनुस्मृतिमें आया है‒
अभिवादनशीलस्य       नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ॥
                                                        (२/१२१)
          ‘जिसका प्रणाम करनेका स्वभाव है और जो नित्य वृद्धोंकी सेवा करता है, उसकी आयु, विद्या, यश और बल ‒ये चारों बढ़ते हैं ।’

          महाभारत-युद्धके आरम्भमें युधिष्ठिर अपने विपक्षमें खड़े पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य आदिके पास जाकर उनको प्रणाम करते हैं और उनसे युद्धके लिये आज्ञा माँगते हैं । इससे प्रसन्न होकर वे युधिष्ठिरको युद्धमें विजयी होनेका वरदान देते हैं । प्रणामकी इतनी महिमा है कि ऊँचे-से-ऊँचे महात्मा जिस ‘वासुदेवः सर्वम्’ (सब कुछ भगवान्‌ ही हैं) का अनुभव करते हैं, वह भी सबको प्रणाम करनेसे सुगमतापूर्वक अनुभवमें आ जाता है (श्रीमद्भा ११/२९/१६-१९) ।

          शरणागति एक ही बार होती है और सदाके लिये होती है । एक बार ‘हे नाथ ! मैं आपका हूँ’ ऐसा कहनेके बाद फिर और क्या कहना शेष रह गया ? एक बार अपने-आपको दे दिया तो फिर दुबारा क्या देना शेष रह गया ?

सकृदंशो निपतति       सकृत्कन्या प्रदीयते ।
सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सतां सकृत् ॥
(महाभारतवन २९४/२६; मनुस्मृति ९/४७)

          कुटुम्बमें धन आदिका बँटवारा एक ही बार होता है, कन्या एक ही बार दी जाती है और किसी वस्तुको देनेकी प्रतिज्ञा भी एक ही बार की जाती है । सत्पुरुषोंके ये तीनों कार्य एक ही बार हुआ करते हैं ।’

सिंह गमन सज्जन वचन, कदलि फलै इक बार ।
तिरिया तेल हम्मीर हठ,       चढ़ै न दूजी बार ॥

           जैसे विवाह होनेपर स्त्री मान लेती है कि अब मैं ससुरालकी हो गयी, पीहरकी नहीं रही, ऐसे ही ‘हे नाथ ! मैं आपका हूँ’ ऐसा कहकर मान ले कि अब मैं भगवान्‌का हो गया, संसारका नहीं रहा ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे