।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
गीताकी शरणागति
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
मैं जहाँ रहता हूँ, वह भगवान्‌का घर है; जो काम करता हूँ, वह भगवान्‌का काम है; जो पाता हूँ, वह भगवान्‌का प्रसाद है और जिन माता-पिता, स्त्री-पुत्र आदिका पालन करता हूँ, वे भगवान्‌के ही जन हैं । जैसे विवाह होनेपर स्त्रीका गोत्र बदल जाता है, पतिका गोत्र ही उसका गोत्र हो जाता है, ऐसे ही शरणागत भक्तका ‘अच्युतगोत्र’ हो जाता है । गोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒‘साह ही को गोतु गोतु होत है गुलाम को’ (कवितावली, उत्तर १०७)

       जैसे पहलवान मनुष्यके किसी अंगमें कोई कमजोरी हो तो उसको पकड़ लेनेसे वह हार जाता है, ऐसे ही भगवान्‌की भी एक कमजोरी है, जिसको पकड़ लेनेसे वे इधर-उधर नहीं हो सकते, हार जाते हैं ! वह कमजोरी है‒एक भगवान्‌के सिवाय अन्य किसीका सहारा न लेना अर्थात्‌ अनन्यभावसे भगवान्‌की शरण लेना‒
एक बानि     करुनानिधान की ।
सो प्रिय जाकें न गति आन की ॥
                                     (मानस, अरण्य १०/४)

        मीराबाईने कहा है‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरों न कोई’‘मेरे तो गिरधर गोपाल’‒यह तो सब कह देते हैं, पर ‘दूसरों न कोई’‒यह नहीं कहते, प्रत्युत माता-पिता, भाई-बन्धु, कुटुम्बी, धन-सम्पत्ति, विद्या, योग्यता आदि किसी-न-किसीका आश्रय भी साथमें रखते हैं । जैसे किसी राजाका बेटा दूसरोंसे भीख माँगने लगे तो वह राजाको नहीं सुहाता, ऐसे ही सत्‌-चित्-आनन्दरूप भगवान्‌का अंश जीव जब असत्‌-जड़-दुःखरूप संसारका आश्रय लेता है तो वह भगवान्‌को नहीं सुहाता; क्योंकि इसमें जीवका महान्‌ अहित है । भगवान्‌को वही प्यारा लगता है, जो अन्यका आश्रय नहीं लेता‘सो प्रिय जाकें गति न आन की’ । भगवान्‌ कहते हैं‒‘मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः’ (गीता १२/१४) ‘मेरेमें अर्पित मन-बुद्धिवाला जो मेरा भक्त है, वह मेरेको प्रिय है ।’

       सर्वथा भगवान्‌की शरण हो जायँ तो फिर वे छोड़ नहीं सकते । परन्तु जो भगवान्‌के सिवाय अन्यका सहारा रखता है, धन, बल, बुद्धि, योग्यता, वर्ण-आश्रम, विद्या आदिका सहारा रखता है तो फिर भगवान्‌ उसकी पूरी रक्षा नहीं करते । जब वह पूरी शरण हुआ ही नहीं तो फिर उसकी पूरी रक्षा कैसे करें ? इसलिये भगवान्‌ कहते हैं‒‘मामेकं शरणं व्रज’ ‘केवल मेरी शरणमें आ’ । परन्तु शरणागतके भीतर ऐसी दृढ़ता रहनी चाहिये कि भगवान्‌ भले ही मेरी रक्षा न करें, मेरी कितनी ही हानि हो जाय, चाहे शरीर नष्ट हो जाय तो भी आश्रय भगवान्‌का ही रखूँगा । चैतन्य महाप्रभु कहते हैं‒
                                       आश्लिष्य वा पादरतां पिनुष्ट मा-
                                                            मदर्शानान्मर्महतां करोतु वा ।
                                        यथा तथा वा विदधातु लम्पटो
                                                            मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः ॥
                                                                                (शिक्षाष्टक ८)

‘वे चाहे मुझे हृदयसे लगाकर हर्षित करें या चरणोंमें लिपटे हुए मुझे पैरोंतले रौंद डालें अथवा दर्शन न देकर मर्माहत ही करें । वे परम स्वतन्त्र श्रीकृष्ण जैसे चाहे वैसे करें, मेरे तो वे ही प्राणनाथ हैं, दूसरा कोई नहीं ।’

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे