।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण एकादशी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
योगिनी एकादशी-व्रत (सबका)
सत्स्वरूपका अनुभव

(गत ब्लॉगसे आगेका)
राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि जो दो चीजें हैं, वे आपमें नहीं हैं । वे बेचारी तो आपके सामने गुजरती हैं । कभी राग हो गया, कभी द्वेष हो गया, कभी हर्ष हो गया, कभी शोक हो गया, कभी निन्दा हो गयी, कभी प्रशंसा हो गयी । ये तो होनेवाले हैं और मिटनेवाले हैं । अब होनेवाले और मिटनेवालेको पकड़कर आप सुखी-दुःखी होते हैं ! ये तो आपके सामने आते हैं, बीतते हैं, गुजरते हैं । आप ज्यों-के-त्यों रहते हो । आपमें फर्क पड़ता नहीं, आप बदलते नहीं । जो बदलता नहीं, वह आपका स्वरूप है और जो बदलता है, वह प्रकृतिका है । इतनी सी बात है, लम्बी-चौड़ी बात ही नहीं है । कृपानाथ ! कृपा करो, आप अपने स्वरूपमें स्थित रहो । स्वरूपमें आपकी स्थिति स्वतः है । आगन्तुक सुख-दुःखमें, आगन्तुक राग-द्वेषमें आप अपनी स्थिति जबरदस्ती करते हो, और उसमें आपकी स्थिति कभी रह सकेगी नहीं । आप कितना ही उद्योग कर लो, न रागमें, न द्वेषमें, न सुखमें, न दुःखमें आपकी स्थिति रह सकेगी । कारण कि आप इनके साथ नहीं हो, ये आपके साथ नहीं है । आप कहते हैं कि मिटता नहीं, हम कहते हैं कि टिकता नहीं !

श्रोता‒इनमें अपनी जो स्थिति मान रखी है, उस मान्यतासे छूटनेका साधन क्या है ?

स्वामीजी‒साधन यही है कि नहीं मानेंगे । जो भूलसे मान लिया, उसको नहीं मानना ही साधन है । कितनी सीधी-सरल बात है ! कठिनताका नाम-निशान ही नहीं है । निर्माण करना हो, बनाना हो, उसमें कहीं कठिनता होती है, कहीं सुगमता होती है । जो ज्यों-का-त्यों विद्यमान है, उसको जाननेमें क्या कठिनता है ?

श्रोता‒जिस समय राग-द्वेष आते हैं, उस समय तो प्रभावित हो जाते हैं !

स्वामीजी‒तो प्रभावित होना आपकी गलती हुई, राग-द्वेषकी थोड़े ही गलती हुई ! आप राग और द्वेष‒दोनोंको जानते हो और दोनोंसे अलग हो । अब आप अलग होते हुए भी प्रभावित हो जाते हो, मिल जाते हो तो यह गलती मत करो ।

श्रोता‒उसका असर पड़ता है ।

स्वामीजी‒आप उसको आदर देते हो तो असर पड़ता है । आदर दोगे तो असर पड़ेगा ही ! ये तो आगन्तुक हैं । गीता साफ कह रही है‒‘आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व’ (२/१४) ‘ये आने-जानेवाले और अनित्य हैं, इनको सह लो, विचलित मत होओ ।’ आप मुफ्तमें विचलित होते हो, पत्थर उछालकर सिर नीचे रखते हो ! इसमें दूसरेका क्या दोष है ?

श्रोता‒यह सहना अभ्याससे आयेगा क्या ?

स्वामीजी‒आप सहते ही हो, नहीं तो क्या करोगे ? सुख आ जाय, उस समय आप क्या करोगे ? दुःख आ जाय, उस समय आप क्या करोगे ? जबरदस्ती तो सहते ही हो, जानकर सह लो तो निहाल हो जाओ ! नहीं तो भोगना पड़ेगा ही । नहीं सहोगे तो कहाँ जाओगे ? चाहे सुख आये, चाहे दुःख आये, आप तो ज्यों-के-त्यों ही रहते हैं ।
यं हि  न  व्यथयन्त्येते   पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
                                                 (गीता २/१५)
      ‘हे पुरुषोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! सुख-दुःखमें सम रहनेवाले जिस धीर मनुष्यको ये मात्रास्पर्श (पदार्थ) व्यथा नहीं पहुँचाते, वह अमर हो जाता है ।’

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे