।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
सत्स्वरूपका अनुभव

(गत ब्लॉगसे आगेका)
ये प्राकृत पदार्थ किसको व्यथा नहीं पहुँचाते ? जो सम रहता है, उसको । आप सम नहीं रहते तो कभी सुख पाते हो, कभी दुःख पाते हो । आपने मुफ्तमें बड़े परिश्रमसे बन्धनको पकड़ा है, पर वह टिकेगा नहीं, टिक सकता नहीं । परन्तु आप नये-नये बन्धनको पकड़ते रहते हो । बचपन छूट गया तो जवानीको पकड़ लिया और जवानी छूट गयी तो वृद्धावस्थाको पकड़ लिया । आगन्तुकको पकड़कर मुफ्तमें दुःख पाते रहते हो । कृपा करो, आप अपने स्वरूपमें स्थित रहो ।

        श्रोता‒महाराजजी ! तुलसीदासजीको जब शारीरिक कष्ट हुआ तो वे भी सम नहीं रह सके और उन्होंने हनुमानबाहुक लिखा, तो हमारी क्या ताकत है कि सम रह जायँ ?

       स्वामीजी‒वे सम नहीं हुए तो उनकी मरजी, आप क्यों विषम होते हैं ? गोस्वामीजी हों या दूसरा कोई हो, हम उनकी पंचायती करते ही नहीं; हम तो अपनी पंचायती करते हैं ! आप क्यों सुखी-दुःखी होते हो ? कहीं ऐसा लिखा है कि जो तुलसीदासजीमें नहीं हुआ, वह आपमें नहीं होगा ? तुलसीदासजीके छोरा-छोरी नहीं हुए, पर आपके हो गये ! तुलसीदासजीमें जो बीमारी नहीं आयी, वह आपमें आ गयी ! जो तुलसीदासजीमें नहीं आयीं, वे कई बातें आपमें आ गयीं ! आपमें जो बातें आयी हैं, वे सब तुलसीदासजीमें आयी थीं क्या ? जितनी आपपर बीती है, उतनी तुलसीदासजीपर बीती थी क्या ? फिर तुलसीदासजीको बीचमें क्यों लाते हो ?

         मैं तो अपने अनुभवकी बात कहता हूँ, न तुलसीदासजीकी बात कहता हूँ, न शंकराचार्य आदिकी बात कहता हूँ । आप अनुभव करके देखो । अगर आपको अनुभव करना है तो इधर-उधरकी बात मत करो । आपसे चर्चा करके मैं इस नतीजेपर पहुँचा हूँ कि वास्तवमें अपने कल्याणकी इच्छा है ही नहीं । अपने कल्याणकी इच्छावाला दूसरी बात कर नहीं सकता । कल्याणकी सच्ची इच्छा हो तो सब सम्बन्ध तोड़कर भजनमें लग जाय । किसीसे न लेना है, न देना है, न आना है, न जाना है; किसीसे कोई मतलब नहीं । रोटी मिल जाय तो खा ली, और न मिले तो कोई परवाह नहीं‒‘जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये, सीताराम सीताराम सीताराम कहिये ।’ यदि रोटी न मिलनेपर मर जाओगे तो क्या रोटी खाकर जीते रहोगे ? क्या रोटी खानेवाला कभी मरता नहीं ? समय आनेपर सबको मरना पड़ेगा ही । इसलिये कोई करे या न करे, हमें तो अपना कल्याण करना है ।

कल्याण स्वतःसिद्ध है, बन्धन स्वतःसिद्ध नहीं है । बन्धन कृत्रिम है और आपका बनाया हुआ है । आप अपने-आपका अनुभव करो कि बालकपनसे आजतक आप वही हो कि दूसरे हो ? अवस्थाएँ बदलीं, देश बदला, काल बदला, परिस्थिति बदली, पर आप वही रहे । जो बदलता है, उसको ले-लेकर आप सुखी-दुःखी होते हो । आप अपने होनेपनमें स्थित रहो । जो बदलता है, उसमें क्यों स्थित होते हो ?
दौड़ सके तो दौड़  ले,    जब  लगि  तेरी  दौड़ ।
दौड़ थक्या धोखा मिट्या, वस्तु ठौड़-की-ठौड़ ॥

           श्रोता‒स्वामीजी ! अपने स्वरूपमें भी स्थित होना है और शरीरको चारा भी देना है..... ।

स्वामीजी‒दोनोंमें अपने स्वरूपमें स्थित होना है । शरीरके पीछे क्यों पड़े हो ? वह तो नष्ट हो रहा है ।

श्रोता‒उसको चारा तो देना पड़ेगा महाराजजी !

स्वामीजी‒चारा देनेके लिये कौन मना करता है ? कभी मना किया है मैंने स्वप्नमें भी ? पर अपनेको क्यों देना पड़ेगा, जिसको गरज है, वह दे या न दे । आप कहाँसे लाओगे देनेके लिये ? लोगोंका इधर-से-उधर दिया है और उधर-से-इधर लिया है, और आपने क्या किया है ? जो हैं, उन्हीं चीजोंमें उथल-पुथल किया है । चारा देना पड़े या न पड़े, कोई आवश्यकता नहीं आपको । जो जीवनमुक्त महापुरुष होते हैं, उनकी लोगोंको गरज हो तो वे उन्हें अन्न दें, वस्त्र दें, नहीं तो मरने दें ! उस महापुरुषको तो संसारसे कोई मतलब नहीं है, संसारसे कुछ लेना नहीं है । जिनको दूधकी गरज है, वे दूध देनेवाली गायका पालन अपने-आप करेंगे, ऐसे ही जिनको जीवनमुक्त महापुरुषकी गरज है, वे उनका पालन अपने-आप करेंगे । नहीं करेंगे तो उसको लेना है ही नहीं । उसका तो काम बन गया है !

आवश्यकताके अनुसार अन्न लेना, जल लेना और सोना‒इन तीन चीजोंके लिये मैं मना करता ही नहीं । भूख भी लगेगी, प्यास भी लगेगी, नींद भी आयेगी, ये तो आती रहेंगी, अपने क्या मतलब है इनसे ? जैसे कभी धूप आती है, कभी छाया आती है, कभी वर्षा आती है, कभी हवा चलती है, कभी ठण्डी आती है, कभी गरमी आती है, ऐसे ही भूख भी लगती है, प्यास भी लगती है । कभी संयोग होता है, कभी वियोग होता है; यह तो होता ही रहता है । इसको क्या आदर दें ? हो गया तो क्या, नहीं हो गया तो क्या ! आप तो वैसे-के-वैसे ही रहे । प्रत्यक्ष अनुभवकी बात है !

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒ ‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे