।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
कर्मयोगका तत्त्व
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
          सबसे पहले एक बात बताता हूँ, उस तरफ आप खयाल करें । परमात्मतत्त्व सब जगह है कि नहीं ? इसके उत्तरमें जो भगवान्‌को मानते हैं, वे सब कहेंगे कि परमात्मा सब जगह हैं । यह मूल चीज है । इस विषयमें चार बातें कहता हूँ‒ १. परमात्मा सब जगह हैं, २. परमात्मा सब समयमें हैं, ३. परमात्मा सब वस्तुओंमें हैं और ४. परमात्मा सबके हैं । यह नहीं है कि मेरे तो वे कोई नजदीक पड़ते हों और आपसे कोई दूर पड़ते हों । परमात्मा पापी-से-पापी, दुराचारी-से-दुराचारीके भी उतने ही नजदीक पड़ते हैं, जितने किसी सन्त-महात्मा, जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी आदिके नजदीक हैं । परमात्मा अपनी तरफसे दूर नहीं हैं, जीव ही उनसे विमुख हो जाता है ।

          परमात्मा सब जगह हैं तो यहाँ हैं कि नहीं ? अगर परमात्मा यहाँ नहीं हैं तो वे सब जगह हैं‒यह नहीं कह सकते । यहाँके सिवा सब जगह हैं‒ऐसा कह सकते हैं, पर फिर भी ‘सब जगह’ शब्द प्रयोगमें नहीं ले सकते । ऐसे ही परमात्मा सब समयमें हैं तो इस समय हैं कि नहीं ? अगर इस समय नहीं हैं तो वे सब समयमें हैं‒यह कहनेकी किसीमें हिम्मत नहीं है । ऐसे ही परमात्मा सम्पूर्ण वस्तुओंमें हैं तो हमारेमें हैं कि नहीं ? शरीर, प्राण, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम्‌ (मैं हूँ)‒इन सबमें परमात्मा हैं कि नहीं ? अगर इनमें नहीं हैं तो परमात्मा सम्पूर्ण वस्तुओंमें हैं‒यह कहना कभी नहीं बन सकता । मैं जहाँ हूँ, वहाँ परमात्मा नहीं हैं‒ऐसा कह सकते हो क्या ? किसी भी आस्तिककी यह कहनेकी हिम्मत नहीं होगी कि मेरेमें परमात्मा नहीं हैं । परमात्मा सबके हैं तो मेरे भी हैं । अगर वे मेरे नहीं हैं तो वे सबके हैं‒यह कहना बनता ही नहीं । सब जीव उनके अंश हैं‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७), ईश्वर अंस जीव अबिनासी (मानस उत्तर ११७/१) । भगवान्‌ कहते हैं कि मैं प्राणिमात्रका सुहृद् हूँ‒ ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५/२९), वे किसी एकके भी सुहृद् न हों, यह नहीं हो सकता । जो सब जगह हैं, सब समयमें हैं, सब वस्तुओंमें हैं और सबके हैं‒ऐसे परमात्माको प्राप्त करनेके लिये क्या करें ? किसी भी एक योगका अनुष्ठान करें । यहाँ प्रसंग कर्मयोगका है, इसलिये अब कर्मयोगकी बात कहता हूँ ।

         कर्मोंसे परमात्माका योग (नित्य-सम्बन्ध) कब होगा ? जब हम अपने लिये कोई कर्म नहीं करें । खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना, चिन्तन करना, भजन करना और समाधि लगाना भी अपने लिये बिलकुल न करें, तब कर्मयोग होगा, नहीं तो कर्मभोग होगा । अपने लिये कर्म करनेसे भोग होता है, योग नहीं होता । यह मूल बात है ।

        अपने लिये कोई कर्म नहीं करना है‒यह सुनकर आदमी अटक जाता है कि अपने लिये नहीं करें तो किसके लिये करें ? एक बात मैं कहता हूँ, अगर आपके विरुद्ध पड़े तो क्षमा करें । जप भी अपने लिये नहीं, तप भी अपने लिये नहीं, समाधि भी अपने लिये नहीं, प्रार्थना भी अपने लिये नहीं‒इनको अपने लिये नहीं करना है । कारण कि मूलमें हम परमात्माके अंश हैं‒
ईस्वर अंस     जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुख रासी ॥
                                           (मानस, उत्तर ११७/२)
        जो चेतन, मलरहित और सुखरासी है, उसके लिये क्या करना पड़ेगा ? उसके लिये कुछ नहीं करना है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌से अपनापन’ पुस्तकसे