।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, रविवार
श्राद्धकी अमावस्या
कर्मयोगका तत्त्व
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
हम अपने लिये करते हैं‒यही बन्धन है । यह बात थोड़ी कठिन पड़ती है, हरेककी समझमें नहीं आती । परन्तु अपने लिये करेंगे तो बन्धन होगा । कैसे बन्धन होगा ? कुछ भी कर्म करें, उस कर्मका आरम्भ होगा कि नहीं ? और उसकी समाप्ति होगी कि नहीं ? कोई भी कर्म किया जायगा तो उसका आरम्भ होगा और समाप्ति होगी । उसका जो फल मिलेगा, उसका भी संयोग होगा और वियोग होगा । वह आपके लिये उपयोगी कैसे होगा, जबकि आप नित्य रहनेवाले हो ?

खूब गहरी रीतिसे ध्यान दो । अपने लिये कुछ भी नहीं करना है‒यह वेदान्तका भी सिद्धान्त है, अद्वैतमार्गका भी सिद्धान्त है, भक्तिमार्गका भी सिद्धान्त है । जितने दार्शनिक हैं, उनका भी यह मत है । जीवात्मा परमात्माका साक्षात् अंश है । वह कर्मोंसे न बढ़ता है, न घटता है‒ ‘कर्मणा न वर्द्धते नो कनीयान् ।’ वह ज्यों-का-त्यों रहता है । आप चाहते हो कि वह कर्मोंसे हमारेको मिल जाय, यहीं गलती होती है । हम जो कर्म करें, दूसरोंके लिये करें । संसारके पदार्थ और क्रियामात्र दूसरोंके लिये हैं; क्योंकि पदार्थ और क्रिया‒ये दोनों प्रकृतिके हैं, परमात्माके नहीं । परमात्मा पदार्थ और क्रियासे रहित है ।

परमात्मा सब वस्तुओंमें हैं और सब क्रियाओंमें हैं । सबमें रहते हुए भी परमात्मा सबसे परे हैं, निर्लिप्त हैं । परमात्मामें लिप्तता है ही नहीं । हम कर्म करते हैं और फल चाहते हैं‒यही गुणोंका संग है, जिससे ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेना पड़ता है (गीता १३/२१) । कर्मका फल विनाशी ही होता है, अविनाशी नहीं । फल वही होता है, जो पहले नहीं होता, प्रत्युत पैदा होनेवाला और नष्ट होनेवाला होता है । अतः परमात्मतत्त्व कर्मका फल नहीं हो सकता ।

ज्ञानसे जो बोध होता है, वह फल नहीं है । भक्तिमें जो प्रेम होता है, वह फल नहीं है । कर्मयोगसे जो योग होता है, वह फल नहीं है । फल कभी भी होगा, नाशवान्‌ ही होगा । फल अविनाशी हो ही नहीं सकता, कभी सम्भव ही नहीं । फिर कर्म किसलिये किया जाय ? संसारमें जो राग है, उस रागकी निवृत्तिके लिये कर्म किया जाय । कर्म रागकी पूर्तिके लिये भी किया जाता है और रागकी निवृत्तिके लिये भी । कर्मका आरम्भ केवल रागकी निवृत्तिके लिये किया जाय । हमने जड़के साथ जो सम्बन्ध जोड़ा है, उस सम्बन्धके विच्छेदके लिये कर्म किया जाय । सम्बन्ध-विच्छेद तभी होता है, जब कर्म दूसरोंके लिये किया जाय । अपने लिये कर्म किया जायगा तो सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होगा ।

स्थूलशरीरसे आप दूसरोंकी सेवा करो, स्थूल पदार्थोंका दान करो, पर उसका फल मत चाहो । कारण कि हमारी न क्रिया है और न पदार्थ है, फिर क्रिया करना और दान-पुण्य करना हमारे लिये कैसे होगा ? ऐसे ही सूक्ष्मशरीरसे यह चिन्तन किया जाय कि प्राणिमात्रका हित कैसे हो ? सबका कल्याण कैसे हो ? सबका उपकार कैसे हो ? सबकी सेवा कैसे बने ? अब रही कारणशरीरकी बात ! कारणशरीर अविद्या कहलाता है और उसमें स्वभाव मुख्य रहता है । इससे आगे हम कुछ नहीं जानते‒इसका नाम कारणशरीर है । स्थूलशरीरमें जाग्रत्‌-अवस्था, सूक्ष्मशरीरमें स्वप्न-अवस्था, और कारणशरीरमें सुषुप्ति-अवस्था (गाढ़ निद्रा) होती है । ये तीनों अवस्थाएँ प्रकृतिके संगसे होती हैं ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌से अपनापन’ पुस्तकसे