।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ अमावस्या, वि.सं.–२०७०, सोमवार
सोमवती अमावस्या
कर्मयोगका तत्त्व


(गत ब्लॉगसे आगेका)
समाधि कारणशरीरकी होती है । समाधिमें किंचिन्मात्र भी स्फुरणा नहीं होती, एकदम स्थिरता रहती है । यह समाधि भी हमारे लिये नहीं है, तभी कर्मयोग होगा । कारण कि समाधि भी कर्म है । जैसे ‘गच्छति’ क्रिया है, ‘चिन्तयति’ क्रिया है, ‘ध्यायते’ क्रिया है, ऐसे ही ‘समाधीयते’ भी क्रिया है । करना भी क्रिया है और न करना भी क्रिया है । भगवान्‌ कहते हैं‒‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३/१८ ) । अर्थात्‌ कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषका इस संसारमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्म न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है । अतः करना भी हमारे लिये नहीं और न करना भी हमारे लिये नहीं ।

         शरीर और वस्तुओंके द्वारा दूसरोंका हित किया जाय तो शरीर और वस्तुओंकी शुद्धि होती है । ऐसे ही दूसरोंके हितका चिन्तन किया जाय तो मन-बुद्धिकी शुद्धि होती है । भगवान्‌ कहते हैं कि जो प्राणीमात्रके हितमें रत होते हैं, वे मेरेको प्राप्त होते हैं‒
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ।
                                          (गीता १२/४)

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥
                                            (गीता ५/२५)
        ‒सगुण और निर्गुण‒दोनोंकी प्राप्तिके लिये ‘सर्वभूतहिते रताः’ पद आया है । दूसरोंके हितके लिये हम कितना कर सकते हैं‒इसका कोई ठेका नहीं है । आपकी रति, रुचि, प्रीति दूसरोंके हितमें हो ।
परहित बस जिन्ह के मन माहीं ।
तिन्ह कहूँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
                                          (मानस, अरण्य ३१/९)
       जिनके हृदयमें दूसरेके हितका भाव रहता है, उनके लिये कुछ भी करना बाकी नहीं रहता ।
गीध अधम खग आमिष भोगी ।
गति दीन्हीं जो जाचत जोगी ॥
                                 (मानस, अरण्य ३३/२)
       योगी जिस गतिके लिये याचना करते हैं, वही गति भगवान्‌ने गीधको दे दी ! वह (गीधराज जटायु) चतुर्भुजरूप धारण करके हरिरूपसे वैकुण्ठको गया । उसके लिये भगवान्‌ने कहा‒‘तात कर्म निज तें गति पाई’ (मानस, अरण्य ३१/८) । अर्थात्‌ इसमें मेरा कोई एहसान नहीं है, अपने कर्मसे तुमने यह गति पाई है । कर्म क्या ? सीताजीकी रक्षाके लिये रावणसे युद्ध किया । सीताजी जब अपनी रक्षाके लिये पुकारने लगीं, तब उसने देखा‒ओ हो ! ये तो रघुकुलतिलक श्रीरामकी स्त्री है और दुष्ट लिये जा रहा है । वह जोरसे बोला‒बेटी ! तू चिन्ता मत कर, मैं अभी आया ! जगज्जननी सीताजीको वह बेटी कहकर पुकारता है ! इसका कारण था कि वह दशरथजीका मित्र था । दशरथजीकी पुत्रवधू मेरी पुत्रवधू ही हुई, मेरी बेटी ही हुई‒इस भावसे वह बेटी कहकर बोला । रावणसे उसने ऐसी लड़ाई की कि रावणको मूर्च्छा आ गयी ! लड़ते-लड़ते जब रावणने तलवारसे उसके पंख काट दिये तो वह नीचे गिर पड़ा; क्योंकि पक्षीके पास पंखोंका ही बल रहता है । इस प्रकार उसने दूसरेके हितके लिये अपने-आपकी आहुति दे दी, इसलिये उसको परमगति प्राप्त हुई । भगवान्‌ इसमें (परमगति देनेमें) अपना कोई एहसान नहीं मानते ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌से अपनापन’ पुस्तकसे