(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
प्रश्न‒गेहूँसे
गेहूँ ही
पैदा होता है,
बाजरेसे
बाजरा ही
पैदा होता है,
फिर
परमात्मासे
तरह-तरहके स्थावर-जंगम
प्राणी कैसे
पैदा होते
हैं ?
उत्तर‒गेहूँ,
बाजरा आदि तो
लौकिक बीज
हैं, पर
भगवान्
अलौकिक और
विलक्षण
(सनातन और
अव्यय) बीज
हैं । अतः एक
ही भगवान्से
तरह-तरहकी
सृष्टि पैदा
होती है । तीन
लोक, चौदह
भुवन, जड़-चेतन,
स्थावर-जंगम,
थलचर-जलचर-नभचर,
जरायुज-अण्डज-स्वेदज-उद्भिज,
सात्त्विक-राजस-तामस,
मनुष्य,
देवता, पशु,
पक्षी, भूत-प्रेत-पिशाच,
ब्रह्मराक्षस
आदि सब-का-सब
उस विलक्षण
बीजकी ही
खेती है !
गीतामें
भगवान्
कहते हैं‒
मत्तः
परतरं
नान्यत्किञ्चिदस्ति । (७/७)
‘मेरे
सिवाय इस
संसारका
दूसरा कोई
कारण है ही नहीं
।’
ये चैव
सात्त्विका
भावा
राजसास्तामसाश्च
ये ।
मत्त
एवेति
तान्विद्धि ............................
॥
(७/१२)
‘जितने
भी
सात्त्विक, राजस
और तामस भाव
हैं, वे सब
मेरेसे ही
होते हैं‒ऐसा
समझ ।’
भवन्ति
भावा
भूतानां
मत्त एव
पृथग्विधाः
॥
(१०/५)
‘प्राणियोंके
(बुद्धि,
ज्ञान,
असम्मोह आदि)
अनेक
प्रकारके और
अलग-अलग भाव
मेरेसे ही
होते हैं ।’
मत्तः
स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं
च । (१५/१५)
‘स्मृति,
ज्ञान और
अपोहन (संशय
आदि दोषोंका
नाश) मेरेसे
ही होता है ।’
श्रीमद्भागवतमें
भगवान्
कहते हैं‒
मनसा
वचसा
दृष्ट्या
गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रीययैः
।
अहमेव न
मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वमञ्जसा
॥
(११/१३/२४)
‘मनसे,
वाणीसे,
दृष्टिसे
तथा अन्य
इन्द्रियोंसे
जो कुछ (शब्द,
स्पर्श, रूप,
रस, गन्ध आदि)
ग्रहण किया
जाता है, वह सब
मैं ही हूँ ।
अतः मेरे
सिवाय और कुछ
भी नहीं है‒यह
सिद्धान्त
आप
विचारपूर्वक
शीघ्र समझ
लें अर्थात्
स्वीकार कर
लें ।’
तात्पर्य
है कि
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे
जो भी
सात्त्विक,
राजस और तामस
भाव, क्रिया, पदार्थ
आदि ग्रहण
किये जाते
हैं, वे सब
भगवान् ही
हैं । मनकी
स्फुरणामात्र,
चाहे अच्छी
हो या बुरी, भगवान्
ही है ।
संसारमें
अच्छा-बुरा,
शुद्ध-अशुद्ध,
शत्रु-मित्र,
दुष्ट-सज्जन,
पापात्मा-पुण्यात्मा,
अपना-पराया
आदि जो कुछ भी
देखने, सुनने,
कहने, सोचने, समझने
आदिमें आता
है, वह सब केवल
भगवान् ही
हैं ।
शरीर-शरीरी,
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ,
परा-अपरा, क्षर-अक्षर‒सब
कुछ भगवान्
ही हैं ।
भगवान्के
सिवाय कहीं
कुछ भी नहीं
है‒‘मया
ततमिदं
सर्वम्’ (गीता
९/४) । जब
सब कुछ
भगवान् ही
हैं, तो फिर
उसमें ‘मैं’
(व्यक्तित्व)
कहाँसे आया ?
‘मैं’ है ही
नहीं, केवल
तू-ही-तू है‒
तूँ तूँ
करता तूँ
भया,
मुझमें रही
न हूँ ।
वारी
फेरी बलि गई,
जित देखूँ तित
तूँ ॥
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान् और उनकी
भक्ति’
पुस्तकसे
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