।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.–२०७०, शनिवार श्रीगणेशचतुर्थीव्रत (बहुलाव्रत)
सर्वश्रेष्ठ साधन



(गत ब्लॉगसे आगेका)
      प्रश्न‒गेहूँसे गेहूँ ही पैदा होता है, बाजरेसे बाजरा ही पैदा होता है, फिर परमात्मासे तरह-तरहके स्थावर-जंगम प्राणी कैसे पैदा होते हैं ?

     उत्तर‒गेहूँ, बाजरा आदि तो लौकिक बीज हैं, पर भगवान्‌ अलौकिक और विलक्षण (सनातन और अव्यय) बीज हैं । अतः एक ही भगवान्‌से तरह-तरहकी सृष्टि पैदा होती है । तीन लोक, चौदह भुवन, जड़-चेतन, स्थावर-जंगम, थलचर-जलचर-नभचर, जरायुज-अण्डज-स्वेदज-उद्भिज, सात्त्विक-राजस-तामस, मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, भूत-प्रेत-पिशाच, ब्रह्मराक्षस आदि सब-का-सब उस विलक्षण बीजकी ही खेती है ! गीतामें भगवान्‌ कहते हैं‒
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति । (७/७)

           ‘मेरे सिवाय इस संसारका दूसरा कोई कारण है ही नहीं ।’

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि ............................ ॥
                                                        (७/१२)

           ‘जितने भी सात्त्विक, राजस और तामस भाव हैं, वे सब मेरेसे ही होते हैं‒ऐसा समझ ।’

भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥
                                                       (१०/५)

          ‘प्राणियोंके (बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह आदि) अनेक प्रकारके और अलग-अलग भाव मेरेसे ही होते हैं ।’
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । (१५/१५)

          ‘स्मृति, ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषोंका नाश) मेरेसे ही होता है ।’

          श्रीमद्भागवतमें भगवान्‌ कहते हैं‒
मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रीययैः ।
अहमेव  न   मत्तोऽन्यदिति   बुध्यध्वमञ्जसा ॥
                                                            (११/१३/२४)

        ‘मनसे, वाणीसे, दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियोंसे जो कुछ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि) ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ । अतः मेरे सिवाय और कुछ भी नहीं है‒यह सिद्धान्त आप विचारपूर्वक शीघ्र समझ लें अर्थात्‌ स्वीकार कर लें ।’

           तात्पर्य है कि शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे जो भी सात्त्विक, राजस और तामस भाव, क्रिया, पदार्थ आदि ग्रहण किये जाते हैं, वे सब भगवान्‌ ही हैं । मनकी स्फुरणामात्र, चाहे अच्छी हो या बुरी, भगवान्‌ ही है । संसारमें अच्छा-बुरा, शुद्ध-अशुद्ध, शत्रु-मित्र, दुष्ट-सज्जन, पापात्मा-पुण्यात्मा, अपना-पराया आदि जो कुछ भी देखने, सुनने, कहने, सोचने, समझने आदिमें आता है, वह सब केवल भगवान्‌ ही हैं । शरीर-शरीरी, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, परा-अपरा, क्षर-अक्षर‒सब कुछ भगवान्‌ ही हैं । भगवान्‌के सिवाय कहीं कुछ भी नहीं है‒‘मया ततमिदं सर्वम्’ (गीता ९/४)जब सब कुछ भगवान्‌ ही हैं, तो फिर उसमें ‘मैं’ (व्यक्तित्व) कहाँसे आया ? ‘मैं’ है ही नहीं, केवल तू-ही-तू है‒
तूँ तूँ करता तूँ भया,    मुझमें रही न हूँ ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखूँ तित तूँ ॥

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे